ALEXANDER INVASION OF INDIA

ALEXANDER INVASION OF INDIA सिकंदर का भारत पर आक्रमण

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सिकन्दर का जीवन परिचय (356-323 ई.पू.)

मकदूनिया के शासक फिलिप का पुत्र सिकन्दर बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी था और विश्व-विजय का स्वप्न देखता था।

सिकन्दर जब 20 वर्ष की आयु का था तब सिकन्दर के पिता फिलिप का 336 ई.पू. में कत्ल कर दिया

सिकन्दर को राज्य मिलाना

सिकन्दर 336 ई.पू. मकदूनिया/मेसिडोनिया के सिंहासन पर पिता की मृत्यु के पश्चात् आसीन हुआ।

सिकन्दर द्वारा विश्व विजय के स्वप्न को साकार करने की चेष्टा

सिंहासन पर आसीन होते ही सिकन्दर ने अपने विश्व विजय के स्वप्न को साकार करने की चेष्टा शुरू कर दी, उसने सर्वप्रथम यूनान के नगर राज्यों को जीता व इसके पश्चात् सिकन्दर ने मिस्र विजित किया और फिर पश्चिमी एशिया पर अधिकार किया।

330 ई.पू. में उसने ईरान के हखामनी साम्राज्य के सम्राट द्वारा तृतीय को पराजित किया।

इसके बाद सिकन्दर ने बैक्ट्रिया को जीता।

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भारत की राजनीतिक अवस्था (POLITICAL SITUATION) सिकन्दर के आक्रमण (INVASION) के समय  

सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर भारत (उत्तरापथ) की राजनीतिक स्थिति लगभग वैसी ही थी जैसी ईरानी आक्रमण के समय थी।

भारत में ईरानी आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर भारत (NORTHWEST INDIA) में विकेन्द्रीकरण और राजनीतिक अस्थिरता (POLITICAL INSTABILITY) की धारा प्रबल थी।

देश का यह भाग कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था, जिनमें कुछ राजतन्त्र और कुछ गणतन्त्र थे।

यूनान लेखकों ने कुल मिलाकर 25 से भी अधिक राज्यों के नाम गिनाये हैं, जिनमें अश्वक (काबुल के उत्तर) गंधार, पौरव, अभिसार (कश्मीर का पश्चिमी प्रदेश), कठ (रावी और व्यास के बीच में), क्षुद्रक और मालव प्रमुख थे

इस प्रकार सारा पश्चिमोत्तर भारत तमाम राज्यों में विभक्त था। इनमें आपसी अनबन बनी रहती थी।

राजतन्त्र, राज्य गणतन्त्रों के विरोधी थे। पौरव राज्य तथा तक्षशिला के अभिसार राज्य में भी आपसी शत्रुता थी। पौरव और अभिसार का क्षुद्रकों और मालवों से झगड़ा लगा रहता था।

इसी प्रकार सैम्बस (sambos) और मुषिक (आधुनिक सिन्ध का अधिकांश भू-भाग) में आपसी शत्रुता थी, ऐसी परिस्थिति में किसी भी विदेशी शक्ति का सफल होना स्वाभाविक ही था।

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सिकन्दर का आक्रमण

यूनानियों और ईरानियों का संघर्ष

यूनानियों (GREEKS) और ईरानियों (IRANIANS) के बीच ईसा पूर्व चौथी सदी में विश्व पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिये संघर्ष हुये।

मकदूनियावासी सिकन्दर के नेतृत्व में यूनानियों ने आखिरकार इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप ईरान साम्राज्य को नष्ट कर दिया और सिकन्दर ने न सिर्फ एशिया माइनर (तुर्की) और इराक को, बल्कि ईरान को भी जीत लिया। ईरान से वह भारत की ओर बढ़ा।

इतिहास के पिता हेरोडोटस

स्पष्टतया सिकन्दर भारत की अपार सम्पत्ति पर ललचाया था। इतिहास के पिता कहे जाने वाले हेरोडोटस और अन्य यूनानी लेखकों ने भारत का वर्णन अपार सम्पत्ति वाले देश के रूप में किया था और सिकन्दर इस वर्णन को पढ़कर भारत पर हमला करने के लिये प्रेरित हुआ।

पश्चिमोत्तर भारत

सिकन्दर की भौगोलिक अन्वेषण और प्राकृतिक इतिहास के प्रति तीव्र ललक थी। उसने सुन रखा था कि भारत की पूर्वी सीमा कैस्पियन सागर तक फैली हुई है, वह विगत विजेताओं की शानदार उपलब्धियों (GREAT ACHIEVEMENTS) से भी प्रभावित था , वह उनका अनुकरण कर उनसे भी आगे निकल जाना चाहता था , पश्चिमोत्तर भारत (NORTHWEST INDIA) की राजनीतिक स्थिति सिकन्दर की इस योजना के लिये उपयुक्त थी।

पश्चिमोत्तर भारत अनेक राजतन्त्रों और कबाइली गणराज्यों में बँटा हुआ था, जिन्हें अपने-अपने क्षेत्र से लगाव था और जिन राज्यों पर उनका शासन था, , उनसे उन्हें बड़ा गहरा प्रेम था।

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सिकन्दर ने पाया कि इन रजवाड़ों को एक-एक कर जीत लेना आसान है, इन इलाकों के शासकों में दो राजा सुविख्यात थे, पहला तक्षशिला का राजा आम्भी और दूसरा पोरस राजा का राज्य झेलम और चिनाब नदी के बीच पड़ता था।

राजा आम्भी और पोरस राजा दोनों एक साथ सिकन्दर को आगे बढ़ने से रोक सकते थे, मगर वे दोनों संयुक्त मोर्चा नहीं बना सके और न ही इन राज्यों द्वारा खैबर दर्रे पर कोई निगरानी रखी गयी। ईरान पर विजय प्राप्त करने के बाद सिकन्दर काबुल की ओर आगे बढ़ा, सिकन्दर 326 ई. पू.  खैबर दर्रा पार करते हुए भारत में आया ।

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सिन्धु तक पहुँचने में उसे पाँच महीने लगे। तक्षशिला के शासक आम्भी ने सिकन्दर से युद्ध करने के स्थान पर उसका स्वागत किया और लेखक रमेश चन्द्र मजूमदार के अनुसार, सिन्धु पार (ACROSS THE INDUS) करने में भी आम्भी ने सिकन्दर की सहायता की थी।

आम्भी ने सिकन्दर को अपने पड़ोसी राज्य पोरस पर आक्रमण करने के लिये प्रोत्साहित किया, क्योंकि पोरस से उसकी शत्रुता थी।

वास्तव में उस समय उत्तर-पश्चिमी भारत छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था, जिनमें एकता का अभाव था और वे परस्पर द्वेष रखते थे।

आम्भी द्वारा सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर उसे पोरस पर आक्रमण करने के लिये उत्साहित करना एक देशद्रोह पूर्ण कार्य था,

जिसके कारण वह इतिहास में आज भी घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। अभिसार के राजा ने भी सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

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राजा पोरस से युद्ध

झेलम और चिनाब के बीच का प्रदेश कैकय देश कहलाता था। वहाँ का राजा पोरस या पुरु था।

राजा पुरु ने सिकन्दर की अधीनता स्वीकार करने के लिये स्पष्ट मना कर दिया और झेलम नदी के तट पर सिकन्दर से सामना करने के लिये अपनी विशाल सेना लाकर खड़ी कर दी।

उस समय झेलम नदी में बाढ़ आयी हुई थी और घनघोर वर्षा हो रही थी। भारतीय सेना ने अनुमान लगाया कि ऐसी परिस्थिति में यूनानी सेना झेलम नदी को पार नहीं कर सकती,

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परन्तु प्राकृतिक विपत्तियों से सिकन्दर घबराने वाला नहीं था। अतः 16 मील उत्तर की ओर जाकर जहाँ झेलम के बीच में टापू बना हुआ था, सिकन्दर ने झेलम पार कर ली परन्तु वह पोरस भी मातृभूमि की रक्षा के लिये कटिबद्ध था ।

यूनानी इतिहासकारों ने भारतीय सेना एवं पोरस की वीरता की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। पोरस और सिकन्दर की सेना वीरता से युद्ध करती रही, परन्तु अन्ततः पोरस की सेना को ही पीछे हटना पड़ा और राजा पोरस घायलावस्था (INJURED) में पकड़ा गया।

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जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि, “तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार (BEHAVIOUR) किया जाये ?” तो पोरस ने निर्भीकता (FEARSOMENESS) से उत्तर दिया, “जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।” सिकन्दर इस उत्तर से बहुत प्रसन्न हुआ और उसका राज्य उसे वापस लौटा दिया।

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गणराज्यों से संघर्ष

सिकन्दर के भारत आक्रमण के समय व्यास नदी के आसपास अनेक गणराज्य थे। यद्यपि इनके पास सिकन्दर की विशाल सेना का सामना करने के लिये सुसंगठित सेना नहीं थी परन्तु देश-प्रेम उनके हृदय में विद्यमान था।

कठ गणराज्य ने सिकन्दर की सेना का डटकर सामना किया। अल्तेकर के अनुसार, “अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर गणराज्य के सैनिकों ने लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त करना ही श्रेष्ठ समझा।

सिकन्दर (SIKANDAR) की सेना (ARMY) को कितनी ही बार तो गणराज्यों की सेना से मुँह की खानी पड़ी परन्तु विशाल यूनानी सेना के सामने देशभक्ति (PATRIOTISM) से परिपूर्ण साधनहीन गणराज्य अधिक समय तक न टिक सके। उन गणराज्यों को सिकन्दर ने अपने राज्य में मिला लिया।

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सिकन्दर ने अब अपनी सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया। परन्तु यूनानी सेनापति ‘कोइनाश’ ने आगे बढ़ने से बिल्कुल मना कर दिया। सिकन्दर ने सैनिकों के सम्मुख एक ओजस्वी भाषण दिया और सैनिकों को हर प्रकार से समझाने-बुझाने की चेष्टा की।

किन्तु सिकन्दर के सभी प्रयास असफल हुए। वह शर्म के मारे तीन दिन अपने खेमे से बाहर नहीं निकला और विवश होकर पंजाब से लौटने की तैयारी करनी पड़ी।

अपने जीते हुए प्रदेश पोरस, आम्भी एवं अभिसार जैसे शुभचिंतक राजाओं में बाँट दिये। कुछ प्रदेशों पर यूनानी गवर्नर नियुक्त कर दिये। सिकन्दर, झेलम के मार्ग से ही वापस लौट गया।

यूनानी सेना भारी सफलता के बाद भी भारत से क्यों लौटी ? यह एक विचारणीय प्रश्न है।

यूनानी सेना भारतीयों से लड़ती-झगड़ती बहुत थक चुकी थी। आगे मगध जैसे शक्तिशाली राज्य से लोहा लेना खतरे से खाली नहीं था।

संक्षेप में भारतीयों के साधनों एवं एकता के अभाव में चाहे थोड़ी-बहुत विजय यूनानियों को मिल गयी परन्तु भारतीय शौर्य एवं साहस से भयभीत होकर ही यूनानी सेना वापस लौटी।

जाते-जाते भी सिकन्दर को स्वतन्त्रता प्रेमी गणराज्यों से लोहा लेना पड़ा। मालव एवं शूद्रक गणराज्य ने डटकर सामना किया। पतञ्जलि के अनुसार तो शूद्रक गणराज्य की सेना ने सिकन्दर की सेना को पराजित किया। सत्यकेतु ने भी इसी का समर्थन किया है।

सिकन्दर ने यह देश 325 ई.पू. के सितम्बर मास में छोड़ा और  उसने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त किया और सिकंदर ने  एक भाग को नियार्कस के नेतृत्व में समुद्र मार्ग से भेजा तथा स्वयं वह स्थल मार्ग से गया।

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सिकन्दर की मृत्यु

भारतीय अभियान में निरन्तर लड़ते-लड़ते सिकन्दर थक चुका था। उसे भीषण ज्वर हो गया और बत्तीस वर्ष का यह विश्वविजेता 323 ई.पू. में बेबलोनिया में इस दुनिया से कूच कर गया। सिकन्दर भारत में आँधी की तरह आया और तूफान की तरह चला गया।

भारतीय इतिहास पर सिकन्दर के आक्रमण का प्रभाव

भारतीय राजनीति अथवा संस्कृति पर सिकन्दर के आक्रमण का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा।

किसी भी हिन्दू, बौद्ध अथवा जैन ग्रन्थ में सिकन्दर के आक्रमण का उल्लेख नहीं किया गया है जो यह सिद्ध करता हो कि भारतीयों ने उसके आक्रमण को कोई महत्त्व दिया हो।सिकन्दर की विजय भारत में क्षणिक थी और उसका कोई स्थायी प्रभाव न पड़ा।

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डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने लिखा है कि, “सिकन्दर का आक्रमण राजनीतिक दृष्टि से भी सफल न था क्योंकि उससे पंजाब स्थायी रूप से यूनानी राज्य में सम्मिलित नहीं हुआ। उसने साहित्य, जनजीवन और शासन पर भी कोई स्थायी प्रभाव नहीं डाला।” डॉ. मुखर्जी आगे लिखते हैं कि भारतीय इतिहास में सिकन्दर का स्थान महमूद गजनी, तैमूरलंग और नादिरशाह के समान है, जिन्होंने अपने आक्रमणों से भारत में लूटमार, असम्मान, कत्लेआम और तबाही की। इस प्रकार, स्वयं सिकन्दर का आक्रमण प्रत्यक्ष दृष्टि से प्रभावपूर्ण न हुआ।

यद्यपि सिकन्दर भारतीय सीमा में 19 माह रहा और इस अवधि के दौरान यूनानी सम्पर्क ने भारतीय इतिहास को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से प्रभावित किया; साथ ही, कला एवं साहित्य का क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा। इनका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं में किया जा सकता है

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भारतीय सभ्यता का यूनानी सभ्यता से सीधा सम्पर्क हुआ ।

  • सिकन्दर के अभियान से चार भिन्न-भिन्न स्थल मार्गों और जलमार्गों के द्वार खुले। इससे यूनानी व्यापारियों और शिल्पियों के लिये मार्ग प्रशस्त हुआ तथा व्यापार की तत्कालीन सुविधायें बढ़ीं।
  • सिकन्दर को उस रहस्यमय महासागर (MYSTERIOUS OCEAN) के भूगोल में गहरी दिलचस्पी हो गयी जिसे उसने पहली बार सिन्धु के मुहाने पर देखा था। इसलिये उसने अपने नये बेड़े को अपने मित्र नियार्कस के नेतृत्व में सिन्धु नदी के मुहाने से फरात नदी के मुहाने तक समुद्र तट पर पता लगाने और बन्दरगाहों को ढूँढ़ने के लिये रवाना किया। इसीलिये सिकन्दर के इतिहासकार मूल्यवान भौगोलिक विवरण छोड़ गये हैं। उन्होंने सिकन्दर के अभियान का तिथि सहित इतिहास भी लिख छोड़ा है, इससे हमें भारत में हुई घटनाओं का तिथिक्रम निश्चित करने में सहायता मिलती है।
  • सिकन्दर के इतिहासकार हमें सामाजिक और आर्थिक स्थिति के बारे में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। वे हमें सती प्रथा, गरीब माँ-बाप द्वारा अपनी लड़कियों को बेचने और पश्चिमोत्तर भारत के उत्तम नस्ल वाले गाय-बैलों के बारे में बतलाते हैं। बढ़ईगिरी भारत की सबसे उन्नत दस्तकारी थी। बढ़ई रथ, नाव और जहाज बनाते थे।
  • भारतीय धर्म एवं संस्कृति से भी यूनानी प्रभावित हुए। यूनानी शासक मिनेन्दर या मिलिन्द ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। यूनानी राजदूत हेलियोडोरेस ने वैष्णव धर्म स्वीकार कर लिया।
  • यूनानी राज्य समाप्त होने के बाद यूनानियों का भारतीयकरण हो गया। वे यहाँ के राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन से घुल-मिल गये। अशोक के शासन में तुषाष्म (यूनानी) सौराष्ट्र का राज्यपाल था ।
  • यूनानी मूर्तिकला के प्रभाव से गांधार शैली का उद्भव हुआ ।
  • सिकन्दर के आक्रमण ने भारतीयों की युद्ध पद्धति और सैन्य रचना के दोष को भी प्रकट किया।
  • भारत में यूनानी शैली के सिक्कों का प्रचार हुआ। पुरु के ऊपर अपनी विजय की स्मृति में सिकन्दर ने एक सिक्का चलाया।
  • सिकन्दर के आक्रमण ने पश्चिमोत्तर भारत के छोटे-छोटे राज्यों की सत्ता को नष्ट कर इस क्षेत्र में मौर्य साम्राज्य का मार्ग प्रशस्त किया। सुना जाता है कि मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर के सैन्य-तन्त्र की कार्यप्रणाली को थोड़ा-बहुत देखा था और उसने उसका कुछ ज्ञान प्राप्त किया था जिससे उसे नन्द वंश की सत्ता को उखाड़ने में सहायता मिली।
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सिकन्दर के आक्रमण के विशेष प्रभाव

सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात् भारत और पश्चिमी देश काफी करीब आ गये। भारत और यूरोप के बीच नजदीकी व्यापारिक सम्बन्ध विकसित हुए।

कई यूनानी लेखकों ने भारत के सामाजिक जीवन और आर्थिक समृद्धि का महत्त्वपूर्ण वर्णन लिपिबद्ध किया जो इतिहास के लिये अत्यन्त उपयोगी है।

यूनानी और भारतीय कला के मेल से गांधार कला का विकास हुआ।। यूनानी सम्पर्क से यूरोप ने भी भारतीय दर्शन और धर्म के बारे में कुछ सीखा और ग्रहण किया।

प्राचीन भारतीय इतिहास की घटनाओं को व्यवस्थित करने में सिकन्दर के आक्रमण की तिथि बहुत मददगार सिद्ध हुई ।

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