BUDDHISM बौद्ध धर्म
भारतीय धर्मों के इतिहास में बौद्ध धर्म का इतिहास अद्वितीय है, इस धर्म का अभ्युदय छठी शताब्दी ई. पू. में महात्मा बुद्ध द्वारा हुआ था व बौद्ध धर्म तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम था व धार्मिक क्रान्ति के इस युग में बौद्ध धर्म का आगमन एक ध्रुव तारे के समान था।
बौद्ध धर्म आज लोगों को आकर्षित कर रहा है, यद्यपि तालिबानी शक्तियों ने इस्लाम के उदय के पश्चात् बौद्ध धर्म को सर्वाधिक क्षति पहुँचाई, फिर भी बौद्ध धर्म आज भी जीवित है।
वैदिक परम्परा का विरोध मुखरित कर बौद्ध धर्म ने एक सामाजिक एवं नैतिक आन्दोलन की शुरुआत की। उस समय एक ऐसे धर्म की आवश्यकता थी, जो सरल तथा सुबोध हो, जिसमें यज्ञ और पुरोहित का आडम्बर तथा क्रूर हिंसा न हो, जो व्यावहारिक हो और जिसके द्वार समाज के नीचे से नीचे के तबके के लोगों के लिये खुले हों, इसकी पूर्ति बौद्ध धर्म ने की।
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महात्मा बुद्ध का संक्षिप्त जीवन वृत्तान्त
बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु से 14 मील दूरी पर अवस्थित लुम्बिनी (वर्तमान रुम्मिनदेई) में हुआ था, जो नेपाल की तराई में स्थित है।
महात्मा बुद्ध के जन्म का नाम सिद्धार्थ था। गौतम गोत्र से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें गौतम भी कहा जाता है। इनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के प्रधान थे। बुद्ध (की माता का नाम ‘महामाया’ था, जो कोलिय गणराज्य की राजकन्या थी। बुद्ध के जन्म के सातवें दिन माता महामाया का निधन हो गया। उसके बाद बुद्ध का लालन- पालन उनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया। उनके पिता ने उनकी सुख सुविधा एवं शिक्षा-दीक्षा की यथोचित व्यवस्था की। शीघ्र ही वे तीरंदाजी, घुड़सवारी एवं मल्ल- विद्या में निपुण हो गये।
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महाभिनिष्क्रमण
शुद्धोदन के प्रयासों के बावजूद सिद्धार्थ बचपन से ही चिंतनशील रहने लगे। उन्हें राग-रंग में बाँधे रखने के प्रयास सफल नहीं हो पाये। उनका विवाह 16 वर्ष की आयु में कोलिय गणराज्य की राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया।
विवाह के बारह वर्ष पश्चात् उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम राहुल रखा गया। लगभग तेरह वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी सिद्धार्थ का मन सांसारिक प्रवृत्तियों में नहीं लग सका।
बौद्ध साहित्य के अनुसार नगर भ्रमण के दौरान भिन्न-भिन्न अवसरों पर सिद्धार्थ ने मार्ग में पहले जर्जर शरीर वृद्ध, फिर व्यथापूर्ण रोगी, फिर मृतक और अन्त में प्रसन्नचित्त को देखा।
इन दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ को पक्का विश्वास हो गया कि संसार दुःखों का घर है और यह शरीर, यौवन और सांसारिक सुख क्षणिक हैं। इसी वैराग्य भावना से प्रेरित बुद्ध एक रात्रि को अपने पुत्र, पत्नी और पिता तथा सम्पूर्ण राज्य वैभव को त्यागकर ज्ञान की खोज में निकल पड़े। उनके जीवन की इस घटना को बौद्ध धर्म एवं साहित्य में महाभिनिष्क्रमण (EXODUS) के नाम से पुकारा जाता है।
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सम्बोधि
ज्ञान की खोज में गौतम एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने लगे। उन्होंने पाँच साथियों सहित “उरुवेला” में कठोर तपस्या की, जिससे उनका शरीर निश्चल एवं शक्तिविहीन – सा हो गया, लेकिन उन्हें ज्ञान प्राप्त न हुआ।
बुद्ध ने अनुभव किया कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देने से भी लाभ नहीं है। उन्होंने मध्यम मार्ग को अंगीकार कर लिया। उन्होंने जान लिया कि योग साधना में हल्का आहार बाधक नहीं है।
गौतम, उरुवेला से गया चले आये और वहीं वटवृक्ष के नीचे बैठकर ध्यानस्थ हो गये। सात दिन अखण्ड समाधि में स्थित रहने के बाद आठवें दिन वैशाखी पूर्णिमा को उन्हें सम्बोधि (आन्तरिक ज्ञान) प्राप्त हुआ और अब वे “बुद्ध (जिसे ज्ञान प्राप्त हो)” के नाम से विख्यात हुए।
अब वे “तथागत (जिसने सत्य को जान लिया हो ) ” के नाम से भी जाने गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें बोध प्राप्त हुआ था, उसका नाम बोधि वृक्ष पड़ा। वह स्थान अब ‘बोधगया’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
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धर्म-चक्र-प्रवर्तन
बुद्ध ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् पीड़ित मानवता के उद्धार के लिये सबको ज्ञान का उपदेश देने का निश्चय किया। वे गया से “सारनाथ (बनारस)” पहुँचे और वहाँ उन्होंने सर्वप्रथम धर्म का उपदेश दिया। बौद्ध साहित्य में प्रथम धर्म उपदेश की यह घटना ‘धर्म-चक्र-प्रवर्तन’ (धर्मरूपी चक्र चलाना) कहलाती है।
बुद्ध जीवनपर्यन्त मगध, काशी, कोसल, वज्जि, मल्ल, वत्स, शाक्य, कोलिय, मोरिय, अंग आदि जनपदों में विचरण करते रहे और अपनी शिक्षाओं का प्रचार करते रहे।
इस दौरान वे अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु भी गये। उन्होंने अपना सर्वाधिक समय कोसल जनपद में बिताया । वैशाली में प्रवास के दौरान ही बुद्ध ने पहली बार स्त्रियों के संघ में प्रवेश की अनुमति प्रदान की। भिक्षुणी संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला महाप्रजापति गौतमी थी, जो बुद्ध की मौसी थी तथा जिसने उनका लालन-पालन किया था ।
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महापरिनिर्वाण
अपने जीवन के अन्तिम दिनों में बुद्ध भ्रमण करते हुए मल्ल जनपद की राजधानी पावा पहुँचे, वहाँ उन्होंने चुन्द नामक लुहार के यहाँ भोजन किया, जिसके बाद उन्हें अतिसार हो गया। इस कष्ट को सहन करते हुए वे कुशीनारा (KUSHINARA) पहुँचे। यहाँ 483 ई.पू. में अस्सी वर्ष की अवस्था में, उन्होंने ‘हिरण्यवती’ नदी के तट पर शरीर त्याग दिया। इस घटना को बौद्ध ग्रन्थों में ‘महापरिनिर्वाण’ कहा गया है।
बौद्ध धर्म की शिक्षायें
बौद्ध धर्म मूल रूप से आचारमूलक और व्यावहारिक धर्म है। महात्मा बुद्ध ने धर्म के दार्शनिक पक्ष के स्थान पर व्यवहार पर अधिक बल दिया है। उनकी दृष्टि से धार्मिक क्रियाओं और गूढ़ चिन्तन की अपेक्षा शुद्ध आचरण, शुद्ध विचार, शुद्ध कर्म और शुद्ध भावना अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बुद्ध अपने उपदेशों में कहा करते थे— “भिक्षुओं ! मैं दो बातों का ही उपदेश देता हूँ-दुःख और दुःख निरोध: दुःख संसार है और दुःख निरोध निर्वाण है।”
चार आर्य सत्य
बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की आधारशिला उसके चार आर्य सत्यों में निहित है। ये चार आर्य सत्य हैं
दुःख
बुद्ध के अनुसार समस्त मानव जीवन दुःखमय है। चारों ओर दुःख ही दुःख हैं। स्वयं महात्मा बुद्ध के शब्दों में, “जन्म भी दुःख है, वृद्धावस्था भी दुःख है, मृत्यु भी दु:ख है, अप्रिय-मिलन भी दुःख है, प्रिय-वियोग भी दु:ख है, इच्छित वस्तु की अप्राप्ति भी दुःख है, मृत्यु भी, दुःख का अन्त नहीं है, क्योंकि मृत्यु के बाद पुनर्जन्म है, इस प्रकार यह भवचक्र चलता रहता है और मनुष्य निरन्तर दुःख भोगता रहता है।”
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दुःख समुदय
द्वितीय आर्य सत्य है कि दुःख अकारण नहीं है। जब दुःख है तो कोई-न-कोई कारण अवश्य होना चाहिये। बौद्ध धर्म के प्रतीत्य-समुत्पाद के नियम के अनुसार, सृष्टि का चक्र कार्य कारण श्रृंखला में बँधा है। इसका अर्थ है कि कारण के होने पर ही कार्य होता है, यह नियम अटल है। इसलिये दुःख का भी कारण है।
दुःख का मूल कारण अविद्या है, व जिसका अर्थ है:-अपने वास्तविक स्वरूप के बारे में मिथ्या धारणा, अविद्या से तृष्णा उत्पन्न होती है,- जो मनुष्य को अन्ततः दुःखों के सागर में डुबो देती है।
दुःख निरोध
दुःख निरोध तृतीय आर्य सत्य है कि जहाँ दुःख का कारण है, वहाँ उससे छुटकारा भी है। दुःख को दूर करने का उपाय उसके कारण को दूर करना है। दुःख का कारण जो तृष्णा है, उसको जड़ से उखाड़ फेंक देने से दुःख का निरोध हो सकता है। अविद्या एवं तृष्णा की समाप्ति ही दुःख के अन्त का उपाय है।
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दुःख निरोध मार्ग
दुःख निरोध मार्ग चतुर्थ आर्य सत्य है कि यदि दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निदान सम्भव है तो फिर इस हेतु कोई तरीका अथवा मार्ग भी होना चाहिये। महात्मा बुद्ध ने इस मार्ग को “दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा” या “दुःख निरोध मार्ग” कहा है। इसे अष्टांगिक मार्ग भी कहा गया है।
अष्टांगिक मार्ग
अष्टांगिक मार्ग, के आठ (8)अंग इस प्रकार हैं-
सम्यक् दृष्टि
सत्य दृष्टि, सत्य-असत्य को पहचानने का ज्ञान।
सम्यक् संकल्प
इच्छा एवं हिंसारहित संकल्प।
सम्यक् वाणी
सत्य एवं मृत्यु वाणी ।
सम्यक् कर्मान्त
सभी कर्मों में पवित्रता रखना, हिंसा, चोरी, व्यभिचार रहित कर्म।
सम्यक् आजीव
जीवन यापन का सदाचारपूर्ण एवं उचित मार्ग।
सम्यक् व्यायाम
विवेकपूर्ण प्रयत्न, अशुभ कर्मों का त्याग और शुभ कर्मों के लिये प्रयत्नशील ।
सम्यक् स्मृति
उत्तम शिक्षाओं का स्मरण, सदा जागरूक बने रहना।
सम्यक् समाधि
चित्त की एकाग्रता, चार आर्य सत्यों का निरन्तर ध्यान।।
प्रतीत्यसमुत्पाद
प्रतीत्यसमुत्पाद, का WORD’S MEANING (शाब्दिक अर्थ) है:-किसी वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरे की उत्पत्ति (ORIGIN) अथवा एक कारण के आधार पर कार्य की उत्पत्ति (ORIGIN) अथवा ऐसा होने पर वैसा उत्पन्न होता है।
प्रतीत्य समुत्पाद के तीन सूत्र बताये गये हैं—
(1) इसके होने पर यह होता है,
(2) इसके न होने पर यह नहीं होता है, तथा
(3) इसका निरोध (PREVENTION) होने पर यह निरुद्ध हो जाता है।
इस नियम के अनुसार संसार के सारे पदार्थ तथा अवस्थायें किन्हीं कारणों पर निर्भर हैं, प्रत्येक वस्तु या घटना का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है।
किसी कारण के बिना किसी भी घटना या कर्म का जन्म नहीं होता है। इसी प्रकार कर्म या घटना को उत्पन्न किये बिना कारण भी नहीं रह सकता। “
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सदाचारी जीवन
महात्मा बुद्ध ने नैतिक मूल्यों पर अत्यधिक बल दिया। महात्मा बुद्ध ने सदाचार के ये नियम बताये –
(i) अहिंसा,
(ii) सत्य,
(iii) अस्तेय (चोरी न करना),
(iv) अपरिग्रह (सम्पत्ति का त्याग),
(v) ब्रह्मचर्य,
(vi) नृत्य, गान, मादक वस्तुओं का त्याग,
(vii) सुगन्धित वस्तुओं का परित्याग,
(viii) असमय भोजन न करना,
(ix) कोमल बिस्तर का त्याग,
(x) धन का त्याग।
कर्म एवं पुनर्जन्म
कर्म एवं पुनर्जन्म गौतम बुद्ध कर्म के प्रभाव एवं पुनर्जन्म में विश्वास करते थे, गौतम बुद्ध का मानना था कि कर्म के आधार पर ही मनुष्य का वर्तमान एवं भावी जीवन बनता है।
अहिंसा
गौतम बुद्ध ने अहिंसा (NON VIOLENCE), मैत्री (FRIENDSHIP) एवं करुणा पर सबसे अधिक जोर दिया, गौतम बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त करने के पश्चात् जीवनपर्यन्त (FOR LIFE) “अहिंसा परमोधर्म” के सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार किया।
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निर्वाण
बुद्ध ने जीवन अन्तिम उद्देश्य निर्वाण या मोक्ष प्राप्ति बताया। निर्वाण का अर्थ है—जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति प्राप्त करना। तृष्णा तथा वासनाओं के समाप्त हो जाने पर मनुष्य का अहंकार नष्ट हो जाता है। अहंकार नष्ट होने पर ही जीव जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति प्राप्त करता है। इसी अवस्था को ‘निर्वाण’ कहते हैं।
क्षणिकवाद
बौद्ध दर्शन, जगत् की किसी वस्तु या विचार की नित्यता में विश्वास नहीं करता है। उसके अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु अनित्य और क्षणिक है। आत्मा और जगत् प्रति क्षण बदलते रहते हैं। परिवर्तन जीवन और जगत् का वास्तविक नियम है।
अनात्मवाद
बौद्ध दर्शन, अनात्मवादी है। अनात्मवाद का सिद्धान्त किवाद के सिद्धान्त का ही परिणाम है। बौद्ध मत स्थायी आत्मा की सत्ता को नहीं मानता। आत्मा शरीर के ही समान नाशवान है। आत्मा में वे सभी विकार हैं, जो शरीर में हैं। आत्मा भी शरीर के साथ बदलती है।
वेदों में अविश्वास व जाति प्रथा के विरोधी
महात्मा बुद्ध वैदिक रीतियों व कर्मकाण्डों के विरोधी थे। महात्मा बुद्ध का मानना था कि निर्वाण प्राप्त करने के लिये यज्ञ व बलि की आवश्यकता नहीं है। महात्मा बुद्ध जाति प्रथा के भी विरोधी थे।
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बौद्ध संघ एवं सम्प्रदाय
महात्मा बुद्ध ने धर्म को व्यवस्थित रूप देने एवं उसके प्रचार के लिए ‘बौद्ध संघ’ बनाया।
प्रत्येक बौद्ध यह कहकर अपने विश्वास की अभिव्यक्ति करता है, “बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।” बौद्ध भिक्षुक विहार व मठों में रहते हुए धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन कर प्रचार कार्य करते थे।
संघ में भिक्षु भिक्षुणियों के लिये अलग-अलग मठ (विहार) बने होते थे, जहाँ वे त्यागमय सादा जीवन व्यतीत करते थे, बुद्ध ने पहले अपने संघ में स्त्रियों को प्रवेश नहीं दिया था
परन्तु बौद्ध के शिष्य आनन्द के निरन्तर अनुरोध तथा उनकी विमाता महाप्रजापति गौतमी की उत्कृष्ट अभिलाषा के कारण उन्होंने भिक्षुणियों को भी संघ की सदस्यता प्रदान की।
संघ में प्रवेश के लिये 15 वर्ष की आयु निर्धारित की गयी थी, इसमें सभी वर्ग एवं जाति के लोग प्रवेश पा सकते थे।
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बौद्ध संगीतियाँ
बौद्ध संगीतियाँ | स्थान | अध्यक्ष | शासनकाल | समय (अवधि) |
प्रथम | राजगृह | महाकश्यप | अजातशत्रु | 483 ई.पू. |
द्वितीय | वैशाली | सत्यकामी | कालाशोक | 383 ई.पू. |
तृतीय | पाटलिपुत्र | अशोक | मोग्गलिपुत्र तिस्म | 250 ई.पू. |
चतुर्थ | कुण्डलवन | वसुमित्र | कनिष्क | प्रथम शताब्दी ई.पू. |
बौद्ध धर्म के विकास में बौद्ध संगीतियों या धर्मसभाओं का विशिष्ट योगदान है। यह संगीतियाँ चार हुई,
प्रथम बौद्ध संगीति 483 ई.पू. में अजातशत्रु के शासनकाल में राजगृह में हुई। इसमें बौद्ध की शिक्षाओं के संकलन हेतु सुत्तपिटक एवं विनयपिटक तैयार किये गये।
द्वितीय बौद्ध संगीति (SECOND BUDDHIST COUNCIL) कालाशोक के शासनकाल में 383 ई.पू. में हुई। वैशाली में हुई इस संगीति में बौद्ध भिक्षुओं के विवादों को दूर किया गया।
तृतीय संगीत सम्राट अशोक के समय में 250 ई.पू. में पाटलिपुत्र में आयोजित की गयी। इस सम्मेलन के पश्चात् भारत के बाहर बौद्ध धर्म के प्रचार की प्रक्रिया का शुभारम्भ हुआ।
चतुर्थ बौद्ध संगीति प्रथम शताब्दी ई.पू. में कश्मीर (कुण्डलवन) में कनिष्क के समय आयोजित की गयी। इस सम्मेलन में बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान नामक दो सम्प्रदायों में बँट गया।
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बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय हीनयान और महायान
अशोक के समय तक बौद्ध धर्म में 18 निकायों (सम्प्रदायों) का विकास हो चुका था।
कनिष्क के समय तक इन निकायों या मतों का स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में ध्रुवीकरण हो गया हीनयान और महायान हीनयान सम्प्रदाय के अनुयायी अपने को मूल बौद्ध धर्म का संरक्षक मानते हैं और उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भवना को स्वीकार नहीं करते।
महायान सम्प्रदाय के अनुयायियों ने बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप में कुछ सुधार बिन्दुओं का समावेश कर उसे अधिक उदार एवं लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया।
हीनयान का प्रसार श्रीलंका एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया में हुआ, जबकि महायान का प्रसार केन्द्रीय एशिया, चीन एवं जापान में हुआ हीनयान और महायान के निम्नलिखित अन्तर इस प्रकार है
क्रमांक | हीनयान | महायान |
1 | बुद्ध महापुरुष। | बुद्ध में देवत्व का आरोपण, ईश्वर का अवतार |
2 | शील को प्रमुख स्थान। | करुणा पर अधिक बल । |
3 | व्यक्ति को निर्वाण के लिये स्वयं के प्रयासों की आवश्यकता | व्यक्ति को निर्वाण के लिये बुद्ध की करुणा की आवश्यकता। |
4 | कठोर नियम एवं अपरिवर्तनशील | लचीले नियम एवं रिवर्तनशीलता। |
5 | ग्रन्थ- पालि भाषा में। | ग्रन्थ संस्कृत भाषा में। |
6 | प्राचीन एवं मौलिक स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं। | परिवर्तन का आग्रही, अवतारवाद, भक्तिवाद, मूर्तिपूजा आदि तत्त्वों का समावेश | |
7 | निर्वाण के लिये भिक्षु जीवन आवश्यक। | निर्वाण गृहस्थ को भी सम्भव |
8 | व्यक्तिवादी और लक्ष्य स्वयं की मुक्ति | समष्टिवादी और लक्ष्य सम्पूर्ण विश्व की मुक्ति। |
बौद्ध साहित्य
बौद्ध धर्म-ग्रन्थ, त्रिपिटक कहलाते हैं। त्रिपिटक का अर्थ है-तीन पिटारियाँ। ये पालि भाषा में हैं, इनके नाम हैं-
विनयपिटक,
विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं के संयम और अनुशासन के नियम दिये हुये हैं।
सुत्तपिटक
सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध की नैतिक शिक्षायें संकलित हैं।
अधिधम्मपिटक
अधिधम्मपिटक में बुद्ध की शिक्षाओं में उपलब्ध दार्शनिक सिद्धान्तों का उल्लेख है।
बौद्ध धर्म की छत्रछाया में विशाल साहित्य का सृजन हुआ जो पालि, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं में उपलब्ध है।
अश्वघोष, नागार्जुन, वसुबन्धु, बुद्धघोष, बुद्धपालित, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति इत्यादि प्रतिभाशाली बौद्ध आचार्यों ने बौद्ध साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
बौद्ध धर्म का प्रसार
पूर्वी भारत में उदित हुआ बौद्ध धर्म शीघ्र ही भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में फैल गया। भारत की सीमाओं को लाँघकर यह धर्म मध्य एशिया, कोरिया, चीन, जापान, तिब्बत, नेपाल आदि देशों में फैल गया।
दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में भी इसका व्यापक प्रसार हुआ। श्रीलंका, बर्मा, कम्बुज (कम्बोडिया), वियतनाम, इण्डोनेशिया, श्याम और मलय आदि देश भी बौद्ध धर्म के प्रभाव में आ गये।
बौद्ध धर्म का इतना व्यापक प्रसार विश्व के इतिहास का एक गौरवपूर्ण अध्याय है।
बौद्ध धर्म की विश्व को देन
महात्मा बुद्ध (MAHATMA BUDDHA) तथा अन्य बौद्ध विचारकों ने अपनी-अपनी शिक्षाओं में सदाचार के उच्च आदर्श क्षमा, अहिंसा, शील, विनय, मानव-कल्याण (HUMAN WELFARE), करुणा आदि पर बल दिया।
इन आदर्शों ने भारतीय जनजीवन में नैतिक चेतना जाग्रत की। बौद्ध धर्म में ऊँच-नीच के भेद पर आधारित वर्ण-व्यवस्था का खण्डन किया और सबकी समानता की घोषणा की।
धार्मिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन
महात्मा बुद्ध ने एक ऐसा सरल धर्म विश्व को दिया, जो सब प्रकार से कर्मकाण्ड तथा अन्धविश्वासों से रहित था, यह बुद्धिवाद तथा मानववाद पर आधारित था और साथ ही मानव को मुक्त करने हेतु कृत संकल्प था। बौद्ध धर्म ने त्याग तथा संन्यासी (निवृत्ति) की विचारधारा को भारत में लोकप्रिय बनाया।
बौद्ध साहित्य एवं बौद्धिक स्वतन्त्रता
हीनयान के लेखकों (WRITERS) ने पालि भाषा के साहित्य (LITERATURE) को तथा महायान के लेखकों ने संस्कृत भाषा के साहित्य को समृद्ध बनाया।
ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बौद्धों की महत्त्वपूर्ण देन बौद्धिक स्वतन्त्रता है। महात्मा बुद्ध ने स्वतन्त्र विचार को हमेशा प्रोत्साहन दिया।
बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन, वसुबन्धु तथा धर्मकीर्ति की संसार के महान् दर्शनशास्त्रियों में गणना की जा सकती है।
शिक्षा के क्षेत्र में बौद्ध धर्म की देन अनुपम है। नालन्दा और विक्रमशीला के विश्वविख्यात बौद्ध विश्वविद्यालय तथा अन्य अनेक बौद्ध मठ शताब्दियों तक भारत में शिक्षा प्रदान करते रहे।
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कला केक्षेत्र में बौद्ध धर्म की देन
भारतीय कला का वास्तविक इतिहास बौद्ध कलाकृतियों से ही प्रारम्भ होता है। अशोक द्वारा निर्मित स्तम्भों से भारतीय कला का अत्यन्त गौरवपूर्ण अध्याय प्रारम्भ होता है।
साँची, भरहुत एवं अमरावती के स्तूप, कन्हेरी (मुम्बई), कार्लेभाजा और अजन्ता से प्राप्त गुहायें, चैत्य और विहार बौद्ध कला के श्रेष्ठ उदाहरण है।
अजन्ता की कतिपय गुफाओं में निर्मित भित्तिचित्र विश्वविख्यात हैं, जो बौद्ध धर्म एवं महात्मा बुद्ध से सम्बन्धित हैं।
वृहत्तर भारत के निर्माण में बौद्ध धर्म का योगदान
भारत से बाहर (OUT OF INDIA) जिन देशों में भारतीय संस्कृति (INDIAN CULTURE) का प्रचार हुआ, उन देशों को सम्मिलित रूप से वृहत्तर भारत कहा जाता है।
इस कार्य में बौद्ध प्रचारकों ने भी अपूर्व साहस एवं समर्पण भाव से योगदान किया। सम्राट अशोक ने विदेशों में बौद्ध प्रचारक भेजने की परम्परा की शुरुआत की थी।
श्रीलंका, चीन, जापान, बर्मा, तिब्बत, वियतनाम, कम्बोडिया, सुमात्रा, मंचूरिया, इण्डोनेशिया, नेपाल आदि एशियाई देशों में बौद्ध धर्म के प्रसार के माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रसार हुआ।
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बौद्ध धर्म का आधुनिक युग (MODERN ERA) के लिये महत्त्व
आज के वैज्ञानिक तथा बुद्धिवादी युग में बौद्ध धर्म संसार के लिये विशेष आकर्षण रखता है।
आधुनिक युग का बुद्धिवादी व्यक्ति ऐसे धर्म की अपेक्षा करता है, जो सब प्रकार के कर्मकाण्ड तथा अन्धविश्वास से मुक्त हो और जो केवल बुद्धिवाद और सदाचार पर आधारित हो।
आज हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जो सारी मानवता की एकता पर बल दे। हम देखते हैं कि बौद्ध धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो आज के युग की माँग को पूरी कर सकता है।
उल्लेखनीय है कि बौद्ध धर्म कर्मकाण्ड तथा अन्धविश्वासों पर नहीं, वरन् बुद्धिवाद और सदाचार पर आधारित है। यही नहीं, यह धर्म सारी मानवता को दुःख से मुक्त कराने के लिये कृत-संकल्प है।
आज जब विश्व राजनीतिक विचारधाराओं तथा स्वार्थों के कारण आतंकवाद की समस्या से ग्रसित है और मानव का अस्तित्व संकट में पड़ा है, ऐसे समय में अहिंसा, पंचशील और करुणा के आदर्शों पर आधारित बौद्ध धर्म निश्चय ही विश्व शान्ति की आशा दिला सकता है।
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बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के कारण
(1) महात्मा बुद्ध का आकर्षक व्यक्तित्व ।
(2) बौद्ध धर्म की सरलता एवं सादगी।
(3) बौद्ध संघ की प्रभावी कार्यप्रणाली ।
(4) राजकीय प्रश्रय-सम्राट अशोक, कनिष्क, हर्षवर्धन आदि द्वारा ।
(5) चतुर्वर्णों का सहयोग ।
(6) अनुयायियों की धर्मपरायणता ।
(7) लोकभाषा का प्रयोग ।
(8) महात्मा बुद्ध की प्रचार शैली।
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बौद्ध धर्म के ह्रास के कारण-8वीं शताब्दी पश्चात्
(1) ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान
(2) बौद्ध धर्म में जटिलताओं का प्रवेश।
(3) बौद्ध भिक्षुओं का नैतिक पतन ।
(4) बौद्ध संघ में विभाजन
(5) राज्याश्रय का अभाव।
(6) तुर्की आक्रमण।
(7) नारी के संघ में प्रवेश से कालान्तर में पनपा अनाचार
(8) बौद्ध धर्म में बढ़ा तन्त्रवाद ।
(9) जनभाषा का त्याग।
(10) शंकर, कुमारिल जैसे दार्शनिकों का बौद्ध धर्म पर प्रहार
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जैन धर्म और बौद्ध धर्म की तुलना
जैन धर्म (JAINISM) और बौद्ध धर्म (BUDDHISM) की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि बहुत से स्तरों पर इनमें बड़ी समानता (EQUALITY) है, लेकिन कुछ अन्य स्तरों पर इनमें व्यापक भेद भी हैं।
समानतायें –
(1) दोनों ही धर्म वेदों की प्रामाणिकता (AUTHENTICITY OF THE VEDAS) में विश्वास नहीं करते।
(2) दोनों ही ब्राह्मण धर्म के यज्ञवाद, देववाद एवं जन्म-आधारित वर्ण-व्यवस्था का विरोध करते हैं।
(3) दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व (EXISTENCE OF GOD) को स्वीकार नहीं करते।
(4) दोनों ही कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं।
(5) दोनों ही निवृत्तिमार्गी हैं और संसार त्याग पर जोर देते हैं।
(6) दोनों ही अहिंसामूलक (NONVIOLENT) हैं और नैतिकता तथा आचार-तत्त्व को प्रधानता देते हैं।
(7) दोनों ही जनवादी (POPULIST) तथा मानवतावादी (HUMANITARIAN) आन्दोलनों के रूप में विकसित हुए।
(8) महावीर और बुद्ध दोनों ने लोगों को सामान्य भाषा में अपने धर्मों का उपदेश दिया, जाति प्रथा की निन्दा की तथा स्त्री और पुरुष की समानता का समर्थन किया।
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