CHANDRAGUPT MAURY IN HINDI

CHANDRAGUPT MAURY IN HINDI चन्द्रगुप्त मौर्य (322 ई.पू. से 298 ई.पू.)

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चन्द्रगुप्त मौर्य की गणना भारत के महानतम शासकों में की जाती है। भारत के बहुत ही थोड़े शासकों को इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने अपने इतने छोटे से शासनकाल में (पुराणों के अनुसार चन्द्रगुप्त ने केवल 24 वर्ष तक शासन किया) इतनी अधिक सफलताएँ प्राप्त की हों। “

डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी (चन्द्रगुप्त मौर्य और उसका काल) के अनुसार, “चन्द्रगुप्त की महानता कई बातों में अद्वितीय है।

चन्द्रगुप्त का प्रारम्भिक जीवन

चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रारम्भिक जीवन के विषय में हमें कुछ विशेष जानकारी नहीं है। यूनानी लेखकों के विवरण में ‘चन्द्रगुप्त’ नाम के भिन्न-भिन्न रूपान्तर मिलते हैं।

स्ट्रैबो, एरिअन और जस्टिन उसे सैण्ड्रोकोटस (Sandrocottus) के नाम से पुकारते हैं।

एपिअन और प्लूटार्क उसे एण्ड्रोकोटस (Androcottus) कहते हैं।

फिलार्कस ने उसका उल्लेख सैण्ड्रोकोप्टोस (Sandrokoptos) के नाम से किया है।

सबसे पहले विलियम जोन्स ने 1793 ई. में इन नामों का समीकरण भारतीय इतिहास में उल्लिखित चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ किया।

भारतीय इतिहास की यह एक बहुत बड़ी खोज थी।

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चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति अथवा वंश

पुराण, मुद्राराक्षस ,एवं अन्य ग्रंथों के अस्पष्ट उल्लेखों के आधार पर कुछ विद्वानों ने चन्द्रगुप्त मौर्य के शूद्र होने की संभावना व्यक्त की है।

लेकिन बौद्ध साहित्य में मौर्यों के क्षत्रिय होने का स्पष्ट उल्लेख है (मोरियनं खत्तियानं वंसे जातं)।

इस आधार पर अधिकांश विद्वान मौर्यो को क्षत्रिय जाति का मानते हैं।

राधाकुमुद मुकर्जी, एच.सी. रायचौधरी आदि अनेक विद्वान मौर्यो को पिप्पलीवन (कुशीनगर के पश्चिम में, देवरिया जिला, उत्तरप्रदेश) की मोरिय नामक क्षत्रिय जाति का सदस्य मानते हैं, जिसका उल्लेख बौद्ध ग्रंथ ‘महापरिनिब्बानसुत्त’ में मिलता है।

प्रसिद्ध लेखक बुद्धघोष ने लिखा है कि मोरियो का यह नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि उनके राज्य में मयूरों की बहुतायत थी।

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मोरिय जाति से सम्बद्ध होने के कारण चन्द्रगुप्त एवं उसके उत्तराधिकारी भारतीय इतिहास में मौर्यवंश के नाम से जाने जाते हैं।

चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी के सम्बन्ध में बहुत सी कथायें एवं अनुश्रुतियाँ प्रचलित है लेकिन उनकी ऐतिहासिक सत्यता संदिग्ध है।

इतिहास में यह कहीं नहीं मिलता कि उसका जन्म कब हुआ था। यूनानी साक्ष्य हमें यह बताते हैं कि 326-25 ई.पू. में चन्द्रगुप्त एक युवक था जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसका जन्म 350 ई.पू. के आसपास हुआ होगा।

चन्द्रगुप्त मौर्य के ज्ञात जीवन की पहली घटना यह है कि वह 326-25 ई.पू. में सिकन्दर से मिला। इसके पहले उसके जीवन के विषय में केवल अनुश्रुतियाँ मिलती है।

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चन्द्रगुप्त मौर्य का पालन पोषण

बौद्ध ग्रंथों के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त के पिता मोरिय जाति के प्रधान थे। जब चन्द्रगुप्त अपनी माता के गर्भ में था, तब दुर्भाग्यवश सीमान्त पर हुई एक लड़ाई में उनका निधन हो गया।

चन्द्रगुप्त की विधवा माता इसके बाद सुरक्षित स्थान की तलास मैं अपने भाइयों के साथ भागकर पुष्यपुर अर्थात् पाटलिपुत्र पहुँची जहाँ चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ।

बालक के जीवन को शत्रुओं की दृष्टि से सुरक्षित रखने के लिए, चन्द्रगुप्त को एक गोशाला में छोड़ दिया गया जहाँ एक गोपालक ने उसका पालन-पोषण किया।

कुछ समय बाद उस गोपालक ने चन्द्रगुप्त को एक शिकारी के हाथ बेच दिया। इस शिकारी ने उसे अपने गाँव में गाय-भैंस चराने के काम में लगा दिया।

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कहा जाता है कि बालक चन्द्रगुप्त इस गाँव में अपने मित्रों के साथ स्वयं द्वारा आविष्कृत खेल ‘राजकीलम्’ (राजकीय खेल) खेला करता था।

इस खेल में चन्द्रगुप्त स्वयं राजा बनता था और उसके मित्र उसके सभासद्। इस राजसभा में बैठकर बालक चन्द्रगुप्त न्याय वितरण का कार्य करता था।

डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार, “इस साधारण ग्रामीण बालक चन्द्रगुप्त ने ‘राजकीलम्’ नामक खेल का आविष्कार करके जन्मजात नेता होने का परिचय दिया।”

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चाणक्य (कौटिल्य) और चन्द्रगुप्त मौर्य का मिलन

चाणक्य ने इसी खेल की एक राजसभा में बालक चन्द्रगुप्त को एक बार देखा था, जब वह आठ या नौ वर्ष का रहा होगा। चाणक्य ने इस बालक में नेतृत्व की प्रतिभा एवं राजत्व के गुण देखे।

चाणक्य ने 1000 कार्षापण देकर बालक चन्द्रगुप्त को उसके शिकारी संरक्षक से खरीद लिया।

कहा जाता है कि नन्द राजा ने चाणक्य (कौटिल्य) नामक ब्राह्मण का एक बार अपमान कर दिया था। इस अपमान का बदला लेने के लिए चाणक्य स्वयं एक प्रतिभाशाली बालक की तलाश में था, जिसे प्रशिक्षित कर वह नन्द राजा को सिंहासन से हटा देता और उसे मगध की गद्दी पर आसीन कर देता।

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चन्द्रगुप्त मौर्य की शिक्षा

इसी प्रयोजन से चाणक्य बालक चन्द्रगुप्त को अपने नगर तक्षशिला ले गया और 7 या 8 वर्ष तक उसे वहाँ एक प्रसिद्ध विद्यापीठ में ‘समस्त विद्याओं तथा कलाओं’ की शिक्षा दिलाई।

सम्भवतः तक्षशिला में अपनी शिक्षा ग्रहण करने के दौरान या उसके बाद चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला था, क्योंकि प्लूटार्क का कथन है कि चन्द्रगुप्त जो उस समय नवयुवक ही था, स्वयं सिकन्दर से मिला था जब सिकन्दर पंजाब पहुँचा था।

जस्टिन ने इस मुलाकात का बड़ा रोचक वर्णन दिया है। उसके अनुसार, “चन्द्रगुप्त ने अपनी उद्दण्डता के कारण सिकन्दर को क्रुद्ध दिया। सिकन्दर ने उसे मार डालने की आज्ञा दी, लेकिन चन्द्रगुप्त अपने प्राण बचाकर वहाँ से भाग निकला।”

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चन्द्रगुप्त मौर्य की विजय

अनेक भारतीय ग्रंथों में चन्द्रगुप्त और चाणक्य के योग, और पूर्वनिश्चित उद्देश्यों के आधार पर बनाई गई उनकी संयुक्त योजनाओं और उनकी सफल क्रियान्विति का उल्लेख है।

चन्द्रगुप्त और चाणक्य का योग भारतीय इतिहास का एक मणिकांचन योग था। चाणक्य एक प्रकाण्ड शास्त्रज्ञ एवं कूटनीति का अमोघ ज्ञाता था।

चन्द्रगुप्त एक मेधावी, प्रतिभा-सम्पन्न एवं सैनिक पराक्रम में निष्णात नवयुवक था। ‘इस योग ने केवल दोनों के जीवन को बरन् भारतीय इतिहास को एक नवीन दिशा की ओर मोड़ दिया।’

इतिहासकारों में इस विषय पर मतभेद है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पहले पंजाब-सिन्ध में यूनानी शासन का अंत किया या पहले मगध पर आक्रमण कर नन्दों का उन्मूलन किया?

बहरहाल, यूनानी लेखकों के विवरण तथा बौद्ध एवं जैन ग्रंथों के संकेतों से यहीं अधिक संभावित जान पड़ता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पहले पश्चिमोत्तर भारत (पंजाब-सिंघ के क्षेत्र) में विदेशी यूनानियों के शासन का अंत किया, और उसके बाद मगध में नन्द वंश का उन्मूलन।

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महावंशटीका

मगध में नन्द वंश का उन्मूलन इस सम्बन्ध में ‘महावंशटीका’ में एक रोचक कहानी दी गई है जो इस प्रकार है – चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने एक सेना तैयार की और राज्य के मध्य में स्थित ग्रामों और नगरों को जीतना आरम्भ किया।

लेकिन लोग उनके विरुद्ध उठ खड़े हुए और उन्होंने उनकी सेना को घेरकर उसका नाश कर दिया। चाणक्य और चन्द्रगुप्त जंगल में चले गये और अपनी स्थिति पर विचार करने लगे।

एक बार वे भेष बदलकर एक गाँव में किसी घर में ठहरे। वहाँ एक स्त्री रोटी पकाकर अपने बच्चे को खिला रही थी। वह बच्चा रोटी के किनारों को छोड़ देता था और बीच के भाग को खा लेता था।

उसे ऐसा करते देखकर माता के मुख से यह सहज उवाच निकला कि वह लड़का तो वैसा ही आचरण कर रहा है जैसा कि चन्द्रगुप्त ने किया है।

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लड़के ने जिज्ञासावश अपनी माता को इस कथन को स्पष्ट करने के लिए कहा। माता ने उत्तर दिया कि, “पुत्र जैसे तुम रोटी के चारों ओर का किनारा छोड़कर बीच का भाग खा रहे हो,

वैसे ही चन्द्रगुप्त ने राज्य प्राप्त करने की लालसा में सीमान्त क्षेत्रों पर अधिकार किये बिना ही सीधे देश के मध्यवर्ती भाग पर आक्रमण कर दिया है।

इसी से जनता उसके विरुद्ध उठ खड़ी हुई। ऐसा करना उसकी मूर्खता थी।”

यह वार्तालाप सुनकर चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने अपनी रणनीति का पुनरीक्षण किया, पुनः सेना का संगठन किया और सीमान्त प्रदेशों से विश्व-अभियान आरम्भ किया।

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परिशिष्टपर्वन्

जैन ग्रंथ ‘परिशिष्टपर्वन्’ में भी इसी प्रकार की एक कथा मिलती है। इसके अनुसार चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने पहले नन्दों पर आक्रमण किया जो विफल रहा।

इन दोनों की सेना तितर-बितर हो गई और उन्हें स्वयं भी जान बचाकर भागना पड़ा। वे एक गाँव में पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक बच्चे ने उसको परोसी हुई गरम खिचड़ी के बीच में अपनी उँगली डालकर जला ली और रोने लगा। यह देखकर उसकी माता ने उसे डाँटा और कहा कि यह बच्चा चाणक्य के समान मूर्ख है।

इस घटना से शिक्षा ग्रहण कर चाणक्य हिमवत्कूट गया और वहाँ के राजा पर्वतक से उसने मैत्री की। इसके बाद चन्द्रगुप्त ने सीमान्त प्रदेशों को जीतते हुए विजय अभियान प्रारम्भ किया।

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