Chittorgarh Fort

आइये आज हम चित्तौड़गढ़ दुर्ग (Chittorgarh Fort)के बारे में अध्ययन करेंगे

चित्रकूट दुर्ग

चित्तौड़ के किले का वास्तविक नाम चित्रकूट है। आचार्य चाणक्य द्वारा बताई गयी चार कोटियों तथा आचार्य शुक्र द्वारा बताई गयी नौ  दुर्ग कोटियों में से केवल एक कोटि धान्वन दुर्ग’ को छोड़कर चित्तौड़गढ़ को सभी कोटियों में रखा जा सकता है

किले का नाम चित्तौड़गढ़ दुर्ग
स्थान चित्तौड़गढ़
निर्माता मौर्य राजा चित्रंग (चित्रांगद) बाद में इस पर अधिकांश निर्माण व आधुनिकीकरण महाराणा कुम्भा ने करवाया   
निर्माण का समय 8 वी सदी
किले की श्रेणीगिरी दुर्ग
विशेषता1303 ई., 1534 ई. एवं 1568 ई. में तीन साके  
प्रथम साका1303 में शासक रतन सिंह पद्मिनी द्वारा (रतन सिंह की पत्नी), अलाउद्दीन के आक्रमण के समय।  
द्रितीय साका1534 में शासक विक्रमादित्य कर्मावती अर्थात् कर्णावती (विक्रमादित्य की माताश्री) इस समय गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब कर्मावती ने हुमायूँ से सहायता हेतु राखी भेजी पर हुमायूँ सहायतार्थ नहीं आ पाया।  
तृतीय साका1567-68 में उदय सिंह चित्तौड़ का शासन जयमल व फत्ता को सौंप कर स्वयं उदयपुर गए। तब अकबर के आक्रमण से जयमल-फत्ता की किले की रक्षा करते हुए वीरगति होने पर राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया।

दुर्गों का सिरमौर

इसी कारण राजस्थान में कहावते कही जाती है कि ‘गढ़ तो गढ़ चित्तौड़गढ़, बाकी सब गढैया’ चित्तौड़गढ़ दुर्ग को दुर्गों का सिरमौर कहा गया है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग का क्षेत्रफल

  • चित्तौड़गढ़ दुर्ग 1810 फीट ऊँचे मेसा के पठार पर निर्मित है
  • चित्तौड़गढ़ दुर्ग का क्षेत्रफल:- 28 वर्ग कि.मी. है
  • चित्तौड़गढ़ दुर्ग की परिधि:- लगभग 13 कि.मी. है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग राजस्थान के किलों में क्षेत्रफल(Area)की दृष्टि से सबसे बड़ा(biggest) है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग को भारत का सबसे लम्बा किला भी कहा जाता है।

Chittorgarh Fort

 चित्तौड़गढ़ दुर्ग की स्थिति

चित्तौड़गढ़ दुर्ग गंभीरी और बेड़च नदियों के संगम पर स्थित है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग 616 मीटर ऊंचे एक पठार पर स्थित है जिसे मेसा का पठार कहते हैं। चित्तौड़गढ़ दुर्ग तक पहुँचने के लिये एक घुमावदार रास्ते से चढ़ाई करनी पड़ती है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मार्ग में सात विशाल प्रवेश द्वार है जो एक सुढृढ़ प्राचीर द्वारा परस्पर जुड़े हैं।

  • प्रथम दरवाजा पाडनपोल (पाटवनपोल, अर्थात् मुख्य या बड़ा दरवाजा) कहलाता है। इसके पार्श्व में प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह का स्मारक बना है जो चित्तौड़ के दूसरे साके के समय बहादुरशाह की सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।
  • किले का दूसरा प्रवेश द्वारा भैरवपोल
  • तीसरा प्रवेश द्वारा हनुमानपोल
  • तत्पश्चात् गणेशपोल,
  • जोड़लापोल
  • लक्ष्मणपोल
  • सातवाँ और अंतिम दरवाजा रामपोल है , जिसके सामने मेवाड़ के आमेठ ठिकाने के यशस्वी पूर्वज पत्ता सिसोदिया का स्मारक है जिसने तीसरे साके के समय आक्रान्ता से जूझते हुए प्राणोत्सर्ग किये थे।

अन्य प्रवेश द्वारा

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में पूर्व की ओर सूरजपोल चित्तौड़ दुर्ग का प्राचीन प्रवेश द्वार है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में उत्तर और दक्षिण दिशा में लघु प्रवेश द्वार या खिड़कियाँ बनी हैं जिनमें उत्तरी दिशा की खिड़की लाखोटा की बारी कहलाती है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग का सामरिक महत्व

चित्तौड़गढ़ दुर्ग दिल्ली(Delhi) से मालवा(Malwa) और गुजरात(Gujarat) जाने वाले मार्ग पर स्थित होने के कारण प्राचीनकाल(ancient time) और मध्यकाल(medieval period) में इस किले का विशेष सामरिक महत्व था।

 चित्तौड़गढ़ दुर्ग का निर्माता

इसके निर्माता के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पता चलता है कि इसका सम्बन्ध मौर्य वंशीय शासकों से था।

मेवाड़ के इतिहास ग्रंथ वीरविनोद के अनुसार मौर्य राजा चित्रंग (चित्रांगद) ने यह किला बनवाकर अपने नाम पर इसका नाम चित्रकूट रखा था, उसी का अपभ्रंश चित्तौड़ है

अंतिम मौर्य शासक (मानमोरी) को बप्पा रावल मेवाड़ में गुहिल राजवंश के संस्थापक ने पराजित किया ।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर अधिकार करने के लिए जितने युद्ध लड़े गये उतने शायद ही किसी अन्य किले के लिए लड़े गये हों।

1174 ई. के आसपास यह दुर्ग गुहिलवंशी क्षत्रियों के अधिकार में आ गया।

1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने रावल रतनसिंह को मारकर इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग को  अलाउद्दीन खिलजी ने अपने पुत्र खिज्रखां को सौंप दिया और इसका नाम खिज्राबाद रख दिया गया।

परन्तु 1326 ई. में गुहिलों की राणा शाखा के राणा हम्मीर ने पुनः चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया तब से लेकर अकबर के काल तक यह दुर्ग राणाओं के अधीन रहा।

कुंभा ने चित्तौड़ के प्राचीन किले का जीर्णोद्धार करवाया। 1567 ई. में राणा उदयसिंह को हराकर अकबर ने इस पर अधिकार कर लिया।

इसके बाद 1615 ई. में जहांगीर ने यह दुर्ग फिर से महाराणा अमरसिंह को लौटा दिया। तब से लेकर भारत को आजादी मिलने तक यह दुर्ग मेवाड़ के महाराणाओं के ही अधीन रहा।

Chittorgarh Fort

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में  स्थित मन्दिर

  • इस दुर्ग में अदबदजी (अद्भुतजी) का मंदिर
  • कालिका माता का मंदिर
  • समिधेश्वर का मंदिर (मोकलजी का मंदिर)
  • जय शंकर का मंदिर
  • कुंभश्याम का मंदिर
  • मीराबाई का मंदिर
  • तुलजा माता का मंदिर
  • सातबीस देवरी जैन मंदिर

शृंगार चंवरी(Shringar Chanwari) का मंदिर (जैन मंदिर) और नवलखा(Navlakha) भण्डार स्थित हैं।

Chittorgarh Fort

विजय स्तंभ

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के भीतर स्थित नौखण्डा विजय स्तंभ इस दुर्ग की सबसे भव्य इमारत है।

ऐसी मान्यता है कि विजय स्तंभका निर्माण 1440 ई. से 1448 ई. में महाराणा कुंभा ने मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी(Sultan Mahmud Shah Khilji) पर विजय के उपलक्ष्य में करवाया था।

विजय स्तंभ हिन्दू देवी-देवताओं का अजायबघर कहलाता है।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में जलापूर्ति के मुख्य स्रोत

  • सूरजकुण्ड
  • जयमलजी का तालाब
  • भीमलत नामक बड़ा तालाब,
  • महाराणा उदयसिंह की झाली रानी(Jhali Rani) द्वारा निर्मित झालीबाव(Jhalibao),
  • चित्रांग मोरी तालाब(Chitrang Mori Lake) जलापूर्ति के मुख्य स्रोत थे।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में  प्रमुख ऐतिहासिक स्थल

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के अन्य प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों में

  • रानी पद्मिनी का महल
  • गोरा एवं बादल के महल
  • जयमल और फत्ता की हवेलियां
  • कंवरपदा के खण्डहर,
  • तोपखाना,
  • भामाशाह की हवेली,
  • सलूम्बर(Salumber) और रामपुरा(Rampura) व अन्य संस्थानों की हवेलियाँ,
  • तोपखाना हिंगलू आहाड़ा के महल इत्यादि प्रमुख हैं।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विद्यमान फतह प्रकाश महल को म्यूजियम या संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया है

जिसमें अनेक कलात्मक देव प्रतिमायें, अलंकृत पाषाण स्तम्भ तथा और बहुत सारी पुरा सामग्री संगृहीत है।

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