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JAINISM जैन धर्म

जैन धर्म की प्राचीनता सम्भवतः प्रागैतिहासिक है, जैन साहित्य में जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है और जैन धर्म के संस्थापक महात्मा ‘तीर्थंकर’ कहलाते हैं।

Table of Contents

जैन धर्म में प्रथम तीर्थंकर

जैन परम्परा ऋषभदेव को प्रथम तीर्थंकर मानती है, जैन मत के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक पुरुष थे व जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर थे जिन्होंने जैन धर्म को लोकप्रिय बनाया, इसी कारण जनसामान्य उन्हें जैन धर्म का प्रवर्तक मानता है।

जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों के  नाम

जैन तीर्थंकर जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों का उल्लेख आता है जिनके नाम इस प्रकार हैं—

(1) ऋषभदेव या आदिनाथ,

(2) अजितनाथ,

(3) सम्भवनाथ,

(4) अभिनन्दन,

(5) सुमतिनाथ,

(6) पद्मप्रभु ,

(7) सुपार्श्वनाथ ,

(8) चन्द्रप्रभु ,

(9) पुष्पदंत,

(10) शीतलनाथ ,

(11) श्रेयांसनाथ ,

(12) वासपूज्य,

(13) विमलनाथ,

(14) अनन्दनाथ,

(15) धर्मनाथ,

(16) शान्तिनाथ,

(17) कुन्थुनाथ,

(18) अरहनाथ,

(19) मल्लिनाथ,

(20) मुनिसुव्रत,

(21) नमिनाथ,

(22) अरिष्टनेमि,

(23) पार्श्वनाथ,

(24) महावीर स्वामी

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महावीर स्वामी का संक्षिप्त जीवनवृत्त

महावीर स्वामी का जन्म

महावीर स्वामी का जन्म (599-527 ई.पू.) वैशाली के समीप कुण्डग्राम में क्षत्रिय परिवार में हुआ था।

महावीर स्वामी के पिता का नाम

सिद्धार्थ

महावीर स्वामी की माता का नाम

त्रिशला

महावीर स्वामी के बचपन का नाम

महावीर स्वामी के बचपन का नाम बर्द्धमान था, इनका पालन- पोषण राजसी ठाठ-बाट से हुआ।

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महावीर स्वामी का विवाह`

जैन धर्म की एक परम्परा के अनुसार युवावस्था में महावीर का विवाह कुण्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा के साथ हुआ, जिससे एक पुत्री अणोज्जा की प्राप्ति हुई।

जब महावीर स्वामी 30 वर्ष के हुए तो इनके पिता का देहावसान हो गया।

पिता के देहावसान होने के पश्चात् वर्द्धमान ने अपने बड़े भाई नन्दिवर्द्धन, की आज्ञा लेकर गृह त्याग दिया और सत्य एवं मन की शान्ति, की खोज में निकल पड़े,

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महावीर स्वामी को ज्ञान की प्राप्ति

12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् वर्द्धमान को 42 वर्ष की अवस्था में जम्भियगाम (जृम्भिग्राम) के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर कैवल्य (शुद्ध ज्ञान) प्राप्त हुआ।

महावीर स्वामी को ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् वर्द्धमान केवलिन, जिन (विजेता), अर्हत् (योग्य) तथा निर्ग्रन्थ (बंधनरहित) कहे गये।

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महावीर

महावीर स्वामी को अपनी साधना में अटल रहने तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें ‘महावीर’ नाम से सम्बोधित किया गया।

जिन और जैन

महावीर स्वामी द्वारा इन्द्रियों को जीत लेने के कारण उन्हें ‘जिन’ व उनके अनुयायी ‘जैन’ नाम से जाने गये।

जैन धर्म का प्रचार

ज्ञान-प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी 30 वर्ष तक घूम- घूम कर कौशल, मगध, वज्जि और काशी राज्यों में जैन धर्म का प्रचार करते रहे।

महावीर स्वामी का निर्वाण (मृत्यु)

72 वर्ष की अवस्था में 527 ई.पू. में “पावापुरी” में निर्वाण (मृत्यु) को प्राप्त हुए।

ब्रह्मचर्य नामक पाँचवाँ व्रत

महावीर ने पार्श्वनाथ द्वारा बताये गये अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार व्रतों में ब्रह्मचर्य नामक पाँचवाँ व्रत और जोड़ दिया।

पार्श्वनाथ ने जैन साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने की आज्ञा दी थी, परन्तु महावीर ने नग्न रहने का आदेश दिया।

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जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त

जीव एवं अजीव का विचार

जैन दर्शन समस्त जगत् को दो नित्य द्रव्यों में विभाजित करता है – जीव और अजीव, जीव चेतन द्रव्य है और स्वयं प्रकाशमान है, वह चेतन तत्त्व आत्मा है, वह अनन्त, अपार और सर्वव्यापक है।

जीव की यह जैन दर्शन की धारणा अन्य भारतीय दर्शनों की आत्मा की धारणा के समान ही है, किन्तु जैन मत में जीवों की संख्या अनन्त है और सब नित्य हैं, जीव जब पुद्गल या भूतद्रव्य से संयुक्त हो जाता है तो उसका शुद्ध स्वरूप लुप्त हो जाता है।

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अजीव

अजीव द्रव्य का विभाजन काल, आकाश, धर्म एवं अधर्म तथा भूतद्रव्य- इनमें किया गया है, ये सब द्रव्य जीवन और चेतना से शून्य होते हैं और यही जीव से इनका भेद है।

बन्ध

बन्धन से मुक्ति दिलाना जैन धर्म का प्रधान उद्देश्य है, जीव का शरीर से जुड़ना ही बन्धन है, कर्म ही वह कड़ी है जो जीव को अपने शरीर से जोड़ती है, अतः कर्म ही बन्धन का कारण है, जीव अपने कर्मों के प्रभाव से ही शरीर धारण करता है  व क्रोध, लोभ, काम आदि दूषित मनोभावों के कारण जब जीव पुद्गल (भूतद्रव्य) रूपी कर्म से आच्छादित हो जाता है, तब उसे बन्ध कहते है।

आस्रव

अजीव के जीव की ओर चलने की प्रक्रिया को आस्रव कहते हैं। दूसरे शब्दों में, कर्म पुद्गल के जीव की ओर प्रवाह ही आस्रव है। दूषित मनोवेग एवं सत्य के ज्ञान के अभाव में कर्म पुद्गल जीव की ओर खिंचते हैं। ऐसी अवस्था में जीव अपना मूल स्वरूप खोकर आवागमन के चक्र में फँस जाता है।

संवर एवं निर्जरा

कर्म से जीव को मुक्त करने के लिये जैन दर्शन, साधना की दो क्रियायें बतलाता है—

संवर

सम्यक् ज्ञान एवं आत्मसंयम से नये कर्म के जीव की ओर प्रवाह को रोकना संवर कहलाता है।

निर्जरा

पुनर्जन्म से संचित कर्म जो पहले ही जीव पर छाये हुए हैं, उन्हें कठोर तप द्वारा हटाने की क्रिया को निर्जरा कहते हैं।

मोक्ष

साधना का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है, जिसमें जीव और कर्म के सम्बन्ध का पूर्ण-विच्छेद हो जाता है, जीव, कर्म बन्धन के कारण ही भौतिक तत्त्व रूपी शरीर से बँधा है, भौतिक तत्त्व से मुक्त होने पर जीव शुद्ध हो जाता है और उसे आत्मा में निहित ज्ञान का साक्षात्कार होने लगता है और इस भौतिक तत्त्व से आत्मा को मुक्त कर देना ही मोक्ष है।

अनेकात्मवाद

जैन धर्म की मान्यता है कि जीव भिन्न-भिन्न होते हैं और उनमें आत्मायें भी भिन्न-भिन्न होती हैं, आत्मा के सम्बन्ध में जैन धर्म का यह विचार उपनिषदों के आत्मा के सिद्धान्त से बिल्कुल भिन्न है जबकि  उपनिषद् सारे संसार में व्याप्त एक आत्मा की सत्ता स्वीकार करते हैं, परन्तु जैन धर्म एक आत्मा पर विश्वास नहीं करता।

त्रिरत्न

जैन धर्म की प्रमुख विशेषता उसका व्यावहारिक उपदेश है, अन्य धर्मों की तरह जैन धर्म भी ज्ञान तथा आचरण दोनों पर ही जोर देता है और  इनके अतिरिक्त जैन धर्म आस्था या निष्ठा को भी आवश्यक मानता है।

कर्मफल का नाश करने के लिये तथा इस जन्म के कर्मफल से बचने के लिये जैन धर्म ‘त्रिरत्न’ का मार्ग सुझाता है,

त्रिरत्न हैं-

(1) सम्यकू दर्शन (आस्था),

(2) सम्यक् ज्ञान,

(3) सम्यकू चरित्र।

यह त्रिरत्न ही मोक्ष का मार्ग है।

कर्म एवं पुनर्जन्म

अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति जैन दर्शन भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानता है, कर्म से बँधे होने पर ही जीव संसार में जन्म ग्रहण करता है।

अत: कर्म ही जैन मत में पुनर्जन्म का कारण है, जैन धर्म संचित कर्मों के अनुसार किसी देवी शक्ति को संसार का कर्ता नहीं मानता, वह कर्म प्रधान धर्म है, कर्म से बँधा हुआ ही जीव संसार में भ्रमण करता है।

पंचमहाव्रत

जैन धर्म आचार प्रधान है, इसमें सम्यक् आचरण या नैतिक जीवनचर्या पर विशेष जोर दिया है; जैसे कर्म, अहिंसा, त्याग और तप जैनमत के अनुसार, निर्वाण या जन्म-मरण से छुटकारा तप द्वारा ही सम्भव है।

जैनमत इन्द्रियों के सुखों का घोर शत्रु है, वह संसार के हर सुख से दूर भागने का उपदेश देता है।

सम्यक् आचरण के अन्तर्गत जैन धर्म पंच महाव्रतों का निर्देश करता है,

(1) अहिंसा,

(2) सत्य,

(3) अस्तेय,

(4) अपरिग्रह,

(5) ब्रह्मचर्य,

इन पाँच महाव्रतों में से प्रथम चार व्रतों का प्रतिपादन पार्श्वनाथ ने किया था, उनमें महावीर ने ब्रह्मचर्य का पाँचवाँ व्रत और जोड़ दिया।

स्याद्वाद

इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक वस्तु के अनेक पक्ष हैं, महावीर स्वामी के शब्दों में, “सत्य के भी कई पहलू हो सकते हैं, परिस्थिति भेद से मानव को इसका आंशिक ज्ञान होता है, कोई भी मनुष्य यह दावा नहीं कर सकता कि उसके विचार ही पूर्णरूप से सत्य हैं और अन्य के गलत,” स्याद्वाद के अनुसार, किसी वस्तु अथवा सत्य के बारे में 7(सात) प्रकार के कथन हो सकते हैं

(1) शायद वह है,

(2) शायद वह नहीं है,

(3) शायद वह है भी और नहीं भी है,

(4) शायद कुछ कहा नहीं जा सकता,

(5) शायद वह है, किन्तु कहा नहीं जा सकता,

(6) शायद वह नहीं है और कहा भी नहीं जा सकता,  

(7) शायद वह है, नहीं है और कहा भी नहीं जा सकता,

इसे ‘सप्तभंगी’ सिद्धान्त भी कहा जाता है, यह सिद्धान्त जैन धर्म की उदारता का परिचायक है।

राजबली पाण्डेय के अनुसार, “सत्य के कई रूप हैं, मनुष्य को परिस्थिति भेद के कारण उसका आंशिक ज्ञान होता है,” वैदिक धर्म स्याद् सिद्धान्त को संदेहवाद कहता है।

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जैन साहित्य

जैन साहित्य ने विभिन्न कालों में लोक भाषाओं के माध्यम से महत्त्वपूर्ण कृतियों की रचना की है,

कल्पसूत्र जैन धर्म का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, ‘परिशिष्टपर्वन’ जैन धर्म का एक अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और यह एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है, इसके अतिरिक्त भद्रबाहुचरित, कथाकोष, भगवतीसूत्र, स्थविरावलि आदि जैन साहित्य की कृतियाँ हैं।

जैन धर्म के, सीमित प्रचार के, कारण

बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार क्षेत्र बहुत सीमित दिखायी देता है, महावीर स्वामी के जीवनकाल में यह मुख्यतः मगध और अंग में ही प्रचारित हुआ,

महावीर स्वामी मृत्यु के बाद भी उसका प्रचार क्षेत्र मूलतः दक्षिण भारत एवं पश्चिमी भारत तक ही सीमित रहा, जैन धर्म कभी भी देशव्यापी नहीं बन सका।

जैन धर्म के, सीमित प्रचार के, कई कारण थे जिनका विवरण निम्नप्रकार से है,

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आचार-मार्ग की कठोरता

जैन धर्म का आचार-मार्ग बहुत कठोर तथा कष्ट साध्य था जो सामान्य जनता के लिये अव्यावहारिक था, इसलिये वह उन्हें आकर्षित नहीं कर सका।

जैन धर्म के अहिंसा, वस्त्रहीनता, कावाक्लेश, अनेकात्मवाद जैसे सिद्धान्तों को जनसामान्य सहजता से आत्मसात् नहीं कर पाया  जबकि दूसरी ओर बौद्ध धर्म के सिद्धान्त अपेक्षाकृत अधिक सरल एवं व्यावहारिक थे।

ब्राह्मण धर्म से अपृथकता

ब्राह्मण धर्म के विरोध में जैन धर्म अपनी प्राचीन नूतनता और स्वतन्त्र अस्तित्व में धीरे-धीरे खोता चला गया, कालान्तर में ब्राह्मण धर्मों की बहुत-सी बातें जैन धर्म ने स्वीकार कर लीं।

ब्राह्मण धर्म का भक्तिवाद, उनके अनेक देवी-देवता जैन धर्म का अंग बन गये व जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को कृष्ण का अवतार मान लिया गया।

बौद्ध धर्म का प्रसार,- ब्राह्मण धर्म की जटिलता के विरोध, में अपनी नवीनता के कारण लोकप्रिय हुआ था, जैन धर्म यह विशिष्टता हासिल नहीं कर सका।

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व्यापक राज्याश्रय का अभाव

जैन धर्म को उस प्रकार का राजकीय आश्रय एवं समर्थन नहीं मिल सका जैसा कि बौद्ध धर्म को एक लम्बी अवधि तक निरन्तर मिलता रहा, बौद्ध धर्म को तो अशोक, और कनिष्क एवं हर्ष जैसे नरेशों का विपुल राजकीय, संरक्षण एवं प्रोत्साहन, मिला लेकिन, परन्तु  ऐसे महान् सम्राटों का राज्याश्रय जैन धर्म, को उपलब्ध नहीं हो सका।

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जनतन्त्रात्मक संघ का अभाव

बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का कारण उसके संघों का जनतन्त्रात्मक गठन एवं संचालन था, जैन संघों में इस प्रकार का कोई स्पष्ट विधान नहीं था, वहाँ शक्ति संघ के प्रमुख धर्माचार्यों के हाथ में ही प्रायः केन्द्रित रही, इसका परिणाम यह हुआ कि, समत्व की भावना के अभाव में, जनसामान्य या जनमानस जैन संघों की ओर अधिक आकृष्ट नहीं हो पाया।

कर्मठ साहसिक प्रचारकों का अभाव

बौद्ध धर्म के कर्मठ, एवं साहसिक प्रचारकों, ने तमाम बाधाओं को पार करते हुए, देश एवं विदेश, दोनों जगह अपने धर्म का खूब, प्रचार-प्रसार किया,

जैन धर्म के अनुयायियों में इस प्रकार की उत्कट प्रचार भावना का अपेक्षाकृत अभाव दिखायी देता है।

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जैन धर्म के स्थायित्व के कारण

जैन धर्म भारतवर्ष में आज भी जीवित है, जबकि दूसरी ओर, बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि भारत से लुप्तप्राय हो गया, यद्यपि दूसरे देशों में वह आज भी प्रचलित है।

भारत में जैन धर्म के स्थायित्व के क्या कारण है ? इसके तीन प्रमुख कारण जान पड़ते हैं, एक तो जैन धर्म के अनुयायी जाति के रूप में संगठित हो गये, दूसरे उसके अनुयायियों की संख्या कम रही है और उन्होंने इसकी परम्परा को बनाये रखा, तीसरे, कालान्तर में जैन धर्म ब्राह्मण धर्म से अभिन्न दिखायी देने लगा और ब्राह्मण धर्माचार्यों ने जैन धर्म का उतना कटु विरोध नहीं किया जैसा की शंकराचार्य, आदि ने बौद्ध धर्म का विरोध किया था।

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जैन धर्म के सम्प्रदाय

समय के साथ (कालान्तर) में जैन धर्म दो सम्प्रदायों में बँट गया,

(1) श्वेताम्बर,

(2) दिगम्बर,

ये दोनों धार्मिक सम्प्रदाय हैं, दार्शनिक दृष्टि से इन दोनों में अधिक भेद नहीं है, केवल उनके विश्वास तथा व्यवहार में थोड़ा अन्तर है।

श्वेताम्बर

श्वेताम्बर साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं व दिगम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रसार अधिक हुआ है।

दिगम्बर

दिगम्बर सम्प्रदाय के साधु सम्पत्ति का पूर्ण त्याग करते हैं, यहाँ तक कि वे वस्त्र भी धारण नहीं करते, इसलिये उन्हें ‘दिगम्बर’ कहा जाता है।

दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार स्त्री के लिये मोक्ष सम्भव नहीं है।

जैन संगीतियाँ

जैन धर्म ग्रन्थों को सुव्यवस्थित रूप देने के लिये दो सभायें (संगीतियाँ) समय-समय पर आयोजित की गयी थीं,

जैन सभाएँ

प्रथम जैन संगीति

पाटलिपुत्र में (चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में)

अध्यक्ष-स्थूलभद्र

यह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में (लगभग 300 ई.पू.) पाटलिपुत्र में सम्पन्न हुई थी, यह संगीति स्थूलभद्र एवं सम्भूति विजय नामक स्थविरों के नेतृत्व में आयोजित की गयी थी।

इस संगीति में द्वादश अंगों का सम्पादन हुआ था, इस सभा के निर्णयों को भद्रबाहु और उसके अनुयायियों ने नहीं माना व परिणामतः जैन धर्म दो शाखाओं में विभक्त हो गया।

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द्वितीय जैन संगीति

गुजरात के वल्लभी में

अध्यक्ष-देवर्धिगणि 513 ई.

यह संगीति गुजरात के वल्लभी में 513 ई. में आयोजित की गयी,  इस संगीति की अध्यक्षता देवर्धिगणि ने की थी व इसमें धर्मग्रन्थों का संकलन कर उन्हें लिपिबद्ध किया गया था।

जैन धर्म की विश्व को देन

यद्यपि जैन धर्म का प्रचार-प्रसार अधिक नहीं हो पाया, फिर भी इस धर्म ने मानव जाति के विभिन्न पक्षों को बहुत प्रभावित किया। संक्षेप में, इसके योगदान का विवेचन निम्न प्रकार है-

जैन धर्म की अहिंसा नीति

जैन धर्म की अहिंसा नीति प्रारम्भ से ही भारतीयों के जीवन का अंग रही है, जैन विचारधारा ने सदाचार एवं संयमित जीवन की जो उपयोगिता बतायी, वह भारतीय धर्मों का आधार बनी।

जैन धर्म का अनेकान्तवाद का सिद्धान्त

जैन धर्म का अनेकान्तवाद का सिद्धान्त विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के बीच भेदभाव मिटाकर समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।

प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य के विकास में जैन लेखकों की देन

प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य के विकास में जैन लेखकों की देन उल्लेखनीय है, राजपूत काल में हेमचन्द्र आदि जैन विद्वानों ने प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा में अनेक विषयों पर ग्रन्थ लिखे।

कला स्थापत्य

कला व स्थापत्य के क्षेत्र में जैनियों ने अनेक सुन्दर मन्दिर बनाकर भारतीय कला को प्रोत्साहन दिया, सौराष्ट्र के गिरिनाथ में, रणकपुर (राजस्थान) में, खजुराहो तथा श्रवण बेलगोला (मैसूर) में जैन मन्दिरों के समूह मिले हैं व आबू में दिलवाड़ा जैन मन्दिर कला की दृष्टि से बड़ा सुन्दर है तथा जैन मन्दिर भारतीय कला का निखरा हुआ रूप प्रकट करते हैं।

निश्चय ही जैन दर्शन, साहित्य एवं कला ने भारतीय संस्कृति को समृद्ध बनाया और आज भी जैन धर्म भारतीय संस्कृति का सहयोगी बनकर समकक्ष खड़ा है, चाहे इसके अनुयायी भारत की कुल जनसंख्या के एक प्रतिशत से भी कम हैं। जैन धर्म का अहिंसा का सिद्धान्त दुनिया के आतंकवाद को समाप्त करेगा यह एक आशा भरी देन है।

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