MAHAJANAPAD PERIOD महाजनपद काल
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ईसा पूर्व छठी शताब्दी
भारतीय इतिहास में ईसा पूर्व छठी शताब्दी एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, इस युग में देश की राजनीतिक गतिविधियाँ सुसंगठित होकर अधिक विकसित हुईं।
डॉ. राजबली पाण्डेय
वैदिककाल के प्रारम्भ में राजनीतिक संगठन का मुख्य आधार ‘जन’ था व डॉ. राजबली पाण्डेय के मतानुसार, “जन को ‘जातीय राज्य’ कहा जा सकता है”
जनपद
प्रारम्भ में इन जनों का कोई सर्वथा निश्चित स्थान नहीं होता था और ये अपनी आवश्यकताओं के अनुसार स्थान परिवर्तन कर लिया करते थे एवं इस प्रकार इनका कोई भौगोलिक आधार नहीं था, परन्तु शीघ्र ही ये जन निश्चित स्थानों पर बस गये व उत्तर-वैदिककाल में राज्यों का स्पष्ट भौगोलिक आधार बना और अब इन्हें जनपद कहे जाने लगा।
महाजनपद
जनपद का अर्थ है, ‘ जन द्वारा अधिकृत क्षेत्र ‘, अपने जनपद की सीमा के विस्तार की भावना तथा पारस्परिक युद्धों से जनपद अपेक्षाकृत विस्तृत हो गये तथा ‘महाजनपद’ कहलाने लगे।
जनपद या महाजनपद युग
महात्मा बुद्ध का समय आते-आते जनपदों का पूर्ण विकास हो चुका था व डॉ.वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार,- “ लगभग एक हजार ईसवी पूर्व से पाँच सौ ईसवी पूर्व तक के युग को भारतीय इतिहास में जनपद या महाजनपद युग कहा जा सकता है।”
इस युग के जनपदों के बारे में जानकारी के प्रमुख साधनों में प्रारम्भिक बौद्ध तथा जैन ग्रन्थ, उत्तर- वैदिककालीन साहित्य, पुराण, रामायण, महाभारत आदि हैं।
बौद्ध ग्रन्थ ‘अंगुत्तर निकाय’ तथा जैन ग्रन्थ ‘भगवती सूत्र’ में सोलह महाजनपदों की सूची दी गयी है व इनमें अधिकांश राज्यों में राजतन्त्रीय व्यवस्था प्रचलित थी, परन्तु कुछ राज्यों में गणतन्त्रात्मक व्यवस्था भी देखने को मिलती है।
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पाणिनी
संस्कृत के महान् वैयाकरण पाणिनी के अनुसार ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक लगभग 22 भिन्न-भिन्न जनपद स्थापित हो चुके थे, जिनमें से तीन अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते थे। ये थे-मगध, कौशल और वत्स ।
महात्मा बुद्ध के समय चार प्रमुख जनपद या महाजनपद (राजतन्त्र) राजधानियाँ एवं शासक
महाजनपद | राजधानी | शासक |
मगध | राजगृह (बाद में पाटलिपुत्र) | बिम्बिसार |
वत्स | कौशाम्बी | उदयन |
कौशल | श्रावस्ती | प्रसेनजित |
अवन्ति | उज्जयिनी | चण्डप्रद्योत |
महाजनपदों का काल
उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर महाजनपदों का काल आठवीं-सातवीं शताब्दी ई.पू. से छठी शताब्दी ई.पू. के पूर्वार्द्ध का माना जा सकता है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय में वर्णित सोलह महाजनपदों का वर्णन मिलाता है।
क्रं. सं. | महाजनपद | राजधानी |
1 | अंग | चम्पा |
2 | मगध | गिरिव्रज (बाद में राजगृह) |
3 | काशी | वाराणसी |
4 | कौशल | श्रावस्ती |
5 | वज्जि | वैशाली |
6 | मल्ल | कुशीनगर |
7 | चेदि | शुक्तिमती |
8 | वत्स | कौशाम्बी |
9 | कुरु | इन्द्रप्रस्थ |
10 | पाञ्चाल | अहिच्छत्र/काम्पिल्य |
11 | मत्स्य | विराटनगर |
12 | शूरसेन | मथुरा |
13 | अश्मक | पोतन |
14 | अवन्ति | उज्जयिनी / महिष्मती |
15 | गांधार | तक्षशिला |
16 | कम्बोज | राजपुर |
अंग महाजनपद
यह जनपद बिहार के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित था, इसमें बिहार के वर्तमान भागलपुर और मुंगेर जिले शामिल हैं।
अंग जनपद मगध के पूर्व में स्थित था, इन दोनों जनपदों के मध्य चम्पा नदी बहती थी, अंग जनपद की राजधानी का नाम भी चम्पा था, एवं बुद्धकालीन छ: बड़े नगरों में ‘चम्पा’ नगरी का नाम है।
चम्पा की आधुनिक खुदाइयों से यहाँ छठी शताब्दी ई.पू. से जनजीवन के प्रमाण मिलते हैं व ई.पू. छठी शताब्दी में इस राज्य पर ब्रह्मदत्त नामक शासक का शासन था।
मगध के शक्तिशाली शासक बिम्बिसार ने अंग के राजा ब्रह्मदत को युद्ध में पराजित कर उसे मार डाला और अंग को मगध में सम्मिलित कर लिया व अजातशत्रु ने वहाँ पर बिम्बिसार के प्रतिनिधि के रूप में शासन किया।
मगध महाजनपद
छठी शताब्दी ई. पू. में जितने राज्यों का उल्लेख मिलता है, उनमें सबसे प्रसिद्ध मगध का राज्य था, यह राज्य आधुनिक बिहार में पटना, गया और शाहबाद क्षेत्रों में फैला हुआ था।
मगध का राज्य उत्तर में गंगा, दक्षिण में विंध्य पर्वत तक तथा पूर्व में चम्पा से पश्चिम में सोन नदी तक फैला हुआ था, इसकी राजधानी गिरिव्रज थी।
बिम्बिसार के बाद इसका नाम बदलकर ‘राजगृह’ रखा गया व बाद में ‘पाटलिपुत्र’ इसकी राजधानी बनी और पालि साहित्य में मगध के निवासियों और उनकी राजधानी राजगृह के सम्बन्ध में विशद् वर्णन उपलब्ध है।
हर्यक वंश के शासकों बिम्बिसार और अजातशत्रु ने इसकी वृद्धि के लिये अनेक प्रयास किये, चौथी शताब्दी ई.पू. में मगध उत्तरी भारत के राजनीतिक शक्ति केन्द्र के रूप में उभरकर सामने आया और महात्मा बुद्ध के समय यहाँ पर हर्यक वंश के बिम्बिसार का शासन था।
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काशी महाजनपद
वर्तमान में उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्व में स्थित वाराणसी तथा उसका समीपवर्ती क्षेत्र ही प्राचीनकाल में काशी महाजनपद था।
उत्तर में वरुणा तथा दक्षिण में असी नदियों से घिरी हुई वाराणसी नगरी इस महाजनपद में राजधानी थी।
काशी अपने शिल्प, ज्ञान, व्यापार और समृद्धि के लिये प्रसिद्ध थी, सोलह महाजनपदों के काशी का महाजनपद सबसे अधिक प्राचीन माना जाता है।
यह अपनी आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति के लिये विख्यात था, काशी और कौशल के बीच दीर्घकालीन संघर्ष का विवरण बौद्ध ग्रन्थों में मिलता है।
यहाँ का शक्तिशाली राजा ब्रह्मदत्त था, जिसने कौशल के ऊपर विजय प्राप्त की थी, किन्तु अन्ततोगत्वा कौशल राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया, अजातशत्रु ने काशी पर अपना अधिकार कर इसे मगध का अंग बना लिया।
कोसल (कौशल) महाजनपद
यह राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश के अवध (वर्तमान फैजाबाद) क्षेत्र में फैला हुआ था, इसकी राजधानी श्रावस्ती थी।
रामायण में इसकी राजधानी ‘अयोध्या’ बतायी गयी है, प्राचीनकाल में यहाँ सूर्यवंश के प्रतापी शासकों ने शासन किया था, जिनमें मान्धाता, सत्यवादी हरिश्चन्द्र, दिलीप, रघु, दशरथ तथा मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
कालान्तर में इस राज्य का महत्त्व कम हो गया, परन्तु ईसा पूर्व छठी शताब्दी में कोसल पुनः एक प्रसिद्ध और शक्तिशाली राज्य बन गया, बुद्ध के समय यहाँ का राजा प्रसेनजित था, इसने काशी को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया।
वज्जि महाजनपद
यह आठ राज्यों का गणतन्त्रात्मक संघ था, इन राज्यों में लिच्छवि, विदेह और ज्ञात्रिक महत्त्वपूर्ण थे।
विदेह की राजधानी मिथिला, लिच्छवियों की राजधानी वैशाली और ज्ञात्रिकों की राजधानी कुण्डग्राम थी, ये सारे राज्य आधुनिक बिहार में स्थित थे।
महात्मा बुद्ध के समय तक वज्जिसंघ एक शक्तिशाली गणराज्य था व बाद में मगध के राजा अजातशत्रु ने इसे अपने राज्य में मिला लिया।
मल्ल महाजनपद
पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में मल्ल महाजनपद स्थित था, इस महाजनपद का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है, वज्जि के समान ही यहाँ भी गणतन्त्रात्मक व्यवस्था थी।
इस संघ राज्य में मल्लों की दो शाखायें सम्मिलित थीं व एक कुशीनारा (वर्तमान कुशीनगर, देवरिया जिला, उ. प्र.) की मल्ल शाखा और दूसरी पावा (आधुनिक पड़रौना, देवरिया जिला, उ. प्र.) की मल्ल शाखा।
मल्ल लोग अपनी साहसिकता तथा युद्धप्रियता के लिये विख्यात थे, व कालान्तर में मगध राज्य ने इस गणराज्य को अपने साम्राज्य में विलीन कर लिया, भगवान बुद्ध ने कुशीनगर में ही अपने प्राण त्यागे थे।
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चेदि महाजनपद
यमुना नदी के पास आधुनिक बुन्देलखण्ड में चेदि महाजनपद फैला हुआ था, इसकी राजधानी शुक्तिमती थी, जिसे बौद्ध साहित्य में सोत्यवती कहा गया है।
महाभारत काल में यहाँ का प्रसिद्ध शासक शिशुपाल था, जिसका वध कृष्ण द्वारा किया गया था।
वत्स महाजनपद
यह महाजनपद गंगा नदी के दक्षिण में स्थित था, इसकी सीमायें कौशल राज्य को स्पर्श करती थीं।
इसकी राजधानी कौशाम्बी थी व पुराणों में भी वत्स राज्य का वर्णन मिलता है, बुद्ध के काल में यहाँ का राजा उदयन था।
वत्स का राज्य भी बुद्ध के समय चार प्रमुख राजतन्त्रों में एक था व उदयन की मृत्यु के पश्चात् मगध ने इस राज्य को भी हड़प लिया था।
कुरु महाजनपद
इस राज्य के अन्तर्गत वर्तमान दिल्ली तथा मेरठ के आसपास का क्षेत्र था व इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी ।
हस्तिनापुर इस राज्य का अन्य महत्त्वपूर्ण नगर था और महाभारतकाल का सम्भवतः यही नगर था ।
कुरु प्रदेश के लोग प्राचीन समय से ही अपनी बुद्धि तथा बल के लिये प्रसिद्ध थे, ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में यहाँ गणतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था स्थापित हुई।
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पाञ्चाल महाजनपद
पाञ्चाल जनपद के अन्तर्गत वर्तमान रूहेलखण्ड तथा इसके समीपवर्ती फर्रुखाबाद, बदायूँ तथा बरेली जिले के समीपवर्ती क्षेत्र सम्मिलित थे।
पाञ्चाल देश दो भागों में विभक्त था उत्तरी पाञ्चाल जिसकी राजधानी अहिच्छत्र थी और दक्षिणी पाञ्चाल जिसकी राजधानी काम्पिल्य थी, महाभारत में इस राज्य का वर्णन मिलता है और द्रौपदी इसी राज्य की राजकन्या थी।
मत्स्य महाजनपद
राजस्थान के जयपुर, भरतपुर एवं अलवर जिलों में मत्स्य महाजनपद फैला हुआ था, इसकी सीमायें अरावली की पहाड़ियों की सरस्वती नदी के तट तक फैली हुई थीं।
मत्स्य महाजनपद की राजधानी विराट्नगर (बैराठ) थी, महाभारत के अनुसार पाण्डवों ने अपना अज्ञातवास का समय यहीं बिताया था।
शूरसेन महाजनपद
यूनानी लेखकों ने इस जनपद का उल्लेख सौरसेनाइ के नाम से किया है, वर्तमान ब्रजमण्डल का क्षेत्र इस जनपद के अन्तर्गत आता था और मथुरा इसकी राजधानी थी।
महाभारत के समय इस नगर की विशेष महत्ता थी और यहाँ यदुवंशी राजाओं का शासन था व बुद्धकाल में यहाँ का राजा अवन्ति पुत्र था।
अश्मक महाजनपद
गोदावरी नदी (आन्ध्र प्रदेश) के तट पर यह महाजनपद स्थित था, इसकी राजधानी पोतन (पौदन्य) थी।
सोलह महाजनपदों में केवल अश्मक ही दक्षिण भारत में स्थित था और बुद्धकाल में अवन्ति ने इसे जीतकर अपनी सीमा के अन्तर्गत समाहित कर लिया।
अवन्ति महाजनपद
पश्चिमी तथा मध्य मालवा (मध्य प्रदेश) के क्षेत्र में अवन्ति महाजनपद बसा हुआ था, यह एक विशाल महाजनपद था।
इसकी दो राजधानियाँ थीं (1) उत्तर में उज्जयिनी (2) दक्षिण में महिष्मती
उज्जयिनी की पहचान मध्य प्रदेश के आधुनिक उज्जैन से की जाती है व राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से उज्जयिनी प्राचीन भारत का महत्त्वपूर्ण नगर था।
यहीं लोहे की खानें थीं, यह बौद्ध धर्म का भी प्रमुख केन्द्र था और चण्डप्रद्योत यहाँ का प्रसिद्ध राजा था जिसने वत्सराज उदयन को बन्दी बनाया था।
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गान्धार महाजनपद
भारत के उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती क्षेत्र अथवा उत्तरापथ पर दो प्रमुख महाजनपद थे, गांधार और कम्बोज पाकिस्तान के पेशावर और रावलपिण्डी के क्षेत्र को गांधार महाजनपद कहा जाता था।
यह एक शक्तिशाली राज्य था, इसकी राजधानी तक्षशिला थी, जो अपने समय में विद्या और व्यापार का एक प्रमुख केन्द्र थी।
कम्बोज महाजनपद
यह गांधार का पड़ोसी राज्य था, इसके अन्तर्गत कश्मीर का उत्तरी भाग, पामीर, बदख्शाँ के क्षेत्र सम्मिलित थे।
इस राज्य की राजधानी राजपुर या हाटक थी व पहले यहाँ राजतन्त्र था, बाद में गणराज्य कायम हुआ।
प्राचीन समय में कम्बोज जनपद अपने श्रेष्ठ घोड़ों के लिये विख्यात था व कौटिल्य ने कम्बोज को कृषि, पशुपालन, वाणिज्य तथा शस्त्र द्वारा जीविका चलाने वाला कहा है।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भारत राजतन्त्र की ओर बढ़ रहा था
इस प्रकार ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भारत राजतन्त्र की ओर बढ़ रहा था, परन्तु वज्जि एवं मल्ल जैसे महाजनपदों में गणतन्त्रात्मक शासन था।
देश में कई अन्य गणराज्य थे व इन गणराज्यों की अपनी शासन प्रणाली थी, इस युग में उत्तर भारत विकेन्द्रीकरण एवं विभाजन के दृश्य उपस्थित कर रहा था।
प्रत्येक महाजनपद अपने राज्य की सीमा बढ़ाना चाहता था व काशी और कौशल के राज्य एक-दूसरे के शत्रु थे।
इसी प्रकार अंग, मगध अवन्ति तथा अश्मक भी परस्पर संघर्ष में उलझे हुए थे व इन गणराज्यों का अस्तित्व राजतन्त्रों के लिये असह्य हो रहा था।
अन्ततोगत्वा निर्बल राज्य शक्तिशाली राज्यों में मिला लिये गये, जिसके फलस्वरूप देश में एकता की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला।
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मगध का उत्थान
हर्यक वंश
बिम्बिसार (544-493 ई.पू.)
बिम्बिसार हर्यक वंश का संस्थापक था।
बिम्बिसार ने मगध साम्राज्य की राजधानी कुशाग्रपुर अथवा गिरिव्रज से ‘राजगृह’ स्थापित की।
जैन साहित्य में बिम्बिसार को ‘श्रेणिक’ नाम से संज्ञापित किया गया है, पुराणों में उसके पिता को हेमजित क्षेत्रीजा एवं तिब्बती साहित्य में महापद्म के नाम से पुकारा गया है।
बिम्बिसार महात्मा बुद्ध एवं महावीर स्वामी का समकालीन था, बिम्बिसार ने मगध में सर्वप्रथम साम्राज्यवाद की नींव डाली।
बिम्बिसार ने अपने साम्राज्य का प्रसार करने के लिये वैवाहिक नीति का पालन किया, उसने कौशल नरेश महाकौशल की पुत्री कौशला देवी से विवाह कर काशी का प्रदेश दहेज में प्राप्त किया।
इसी प्रकार उसने वैशाली के लिच्छवी नरेश चेटक की पुत्री चेल्लना एवं मद्रदेश (पंजाब) की राजकुमारी क्षेमा से विवाह कर अपने साम्राज्य को सुरक्षित किया।
सर्वप्रथम साम्राज्य विस्तार की नीति का पालन करते हुये उसने अंग राज्य पर आक्रमण कर उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया, उसके साम्राज्य में 80,000 गाँव सम्मिलित थे।
बिम्बिसार ने अपने प्रसिद्ध राजवैद्य जीवक को अवन्ति के शासक चण्ड प्रद्योत की चिकित्सा हेतु भेजा।
राजगृह के भवनों का निर्माता प्रसिद्ध वास्तुकार महागोविन्द था, बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि अपने चचेरे भाई देवदत्त के उकसाने पर अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या कर स्वयं को शासक घोषित कर दिया।
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अजातशत्रु (493-462 ई.पू.)
अजातशत्रु ने प्रथम युद्ध कौशल नरेश प्रसेनजित के विरुद्ध काशी को प्राप्त करने के लिये किया, क्योंकि बिम्बिसार की हत्या के उपरान्त काशी का प्रदेश मगध से छीन लिया गया था।
काशी नरेश प्रसेनजित युद्ध में पराजित हुआ और उसे अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु के साथ करना स्वीकारना पड़ा, काशी पुनः मगध में मिला लिया गया।
दूसरा आक्रमण वैशाली के लिच्छवियों के विरुद्ध किया, यह युद्ध लगभग 16 वर्षों तक चलता रहा और अन्ततः मन्त्री वस्सकार के कूटनीतिक प्रयासों से इसे विजित किया जा सका।
यह अजातशत्रु के जीवन का सबसे लम्बा युद्ध अभियान था व इस युद्ध में दो नवीन हथियारों शिलाकण्टक और रथमूसल का प्रयोग किया गया।
महात्मा बुद्ध तथा महावीर स्वामी का निर्वाण अजातशत्रु के समय ही हुआ व बुद्ध की मृत्यूपरान्त अजातशत्रु ने राजगृह में बौद्ध स्तूप का निर्माण करवाया।
जैन साहित्य में अजातशत्रु को पितृहन्ता नहीं मानते चूँकि उसका झुकाव जैन मत की ओर था।
अजातशत्रु ने पाटलिग्राम नामक स्थान पर गंगा और सोन नदियों के संगम पर दुर्ग का निर्माण करवाया, यह भारत का प्रथम जल दुर्ग कहलाता है।
अजातशत्रु के समय 483 ई.पू. में राजगृह की वैभार पहाड़ियों पर प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ, इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन किया गया।
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उदयन (462-445 ई.पू.)
उदयन ने अपनी नवीन राजधानी पाटलिपुत्र स्थापित की, जो व्यापारिक और सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थी, उसने पाटलिपुत्र में जैन चैत्यगृह का निर्माण करवाया व पाटलिपुत्र के अवशेष पटना के कम्रहार गाँव से मिले हैं।
उदयन की मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र अनिरुद्ध, मुण्ड और नागदाशक शासक बने, काशी के प्रान्तीय शासक शिशुनाग ने नागदाशक की हत्या कर शिशुनाग वंश की नींव रखी।
शिशुनाग वंश
शिशुनाग (411-393 ई.पू.)
बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार शिशुनाग वैशाली के लिच्छवी सरदार और गणिका का पुत्र था, शासक बनने के उपरान्त उसने गिरिव्रज को मगध की राजधानी बनाया और वैशाली को द्वितीय राजधानी का दर्जा प्रदान किया।
शिशुनाग ने अवन्ति के शासक अवन्तिवर्धन को पराजित करके अवन्ति को मगध साम्राज्य में मिला लिया, अब उसके साम्राज्य का विस्तार बंगाल से मालवा तक हो गया और मगध उत्तरी भारत का सर्वशक्तिशाली राज्य बन गया।
कालाशोक अथवा काकवर्ण (393-366 ई.पू.)
कालाशोक ने अपनी राजधानी को पुनः पाटलिपुत्र स्थानान्तरित कि और दीर्घ समय तक यही मगध की राजधानी बनी रही।
कालाशोक के समय में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन 383 ई.पू. वैशाली के बालिकाराम विहार में किया गया, इस संगीति के पश्चात् बौद्ध संघ में विभेद हो गया।
नन्द वंश
महापद्मनन्द
महापद्मनन्द, नन्द वंश का संस्थापक था, बौद्ध ग्रन्थों में उसे उग्रसेन, पुराणों में शूद्रगर्भोद्भव एवं सर्वक्षत्रान्तक कहा गया है, सर्वक्षत्रान्तक के रूप में वह भारतीय इतिहास का दूसरा परशुराम कहलाया।
खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि महापद्मनन्द ने कलिंग पर भी अधिकार कर लिया था।
कल्पक नामक मंत्री ने अपनी कूटनीति से नन्द वंश के साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया और अन्तत: तत्कालीन सामन्त राजवंश-शिशुनाग, इक्ष्वाकु, पाञ्चाल, काशी, कलिंग, अश्मक, कुरु, मैथिली, शूरसेन, नीतिहोत्र आदि को समाप्त कर दिया।
गोदावरी तट पर स्थित ‘नौनन्द देहरा’ नामक नगर नन्दों की सत्ता का संकेत करता है,
महापद्यनन्द के समय पहली बार मगध साम्राज्य की सीमायें गंगा की घाटी को पार कर सिन्धु नदी की घाटी में व्यास नदी तक फैल जाती हैं एवं एकछत्र सार्वभौम सत्ता की स्थापना का सिलसिला आरम्भ हो जाता है।
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धनन्द
नन्द वंश का अन्तिम नरेश धनन्द था, जिसे चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य ने परास्त कर मौर्य वंश की नींव रखी।
यह स्मरण रहे कि मगध की बहुत-सी अनुकूल परिस्थितियों-भौगोलिक, सामरिक, आर्थिक एवं सामाजिक ने इसके उत्थान में बड़ा योगदान किया।
लोहे की खानें मगध के आसपास के क्षेत्र में स्थित थीं, इससे कृषि एवं सामरिक गतिविधियों के विकास की गति को बढ़ावा मिला।
सामरिक दृष्टि से भी मगध की स्थिति सुदृढ़ थी, मगध की पहली राजधानी राजगृह पाँच पहाड़ियों के समूह से घिरी हुई थी व दूसरी राजधानी पाटलिपुत्र-गंगा, गंडक एवं सोन नदियों के संगम पर स्थित थी और एक जल दुर्ग के समान थी।
जलमार्ग ने पाटलिपुत्र के व्यापार-वाणिज्य को भी बढ़ावा दिया व गंगा घाटी के इस उपजाऊ क्षेत्र में खाद्यान्न की कभी कमी नहीं रही और विपुल धन से बड़ी सेना खड़ी करना सम्भव हो सका।
मगध को एक फायदा पूर्वी क्षेत्र से हाथियों की उपलब्धता आसान थी व मगध का क्षेत्र बौद्ध एवं जैन धर्म का उद्गम स्थल होने के कारण सामाजिक दृष्टि से उपयुक्त था।
लचीलेपन के कारण जाति- व्यवस्था की जड़ें मजबूत नहीं हुई थीं, व इन कारणों से मगध के उत्थान को बल मिला।
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