Maharana Pratap In Hindi

आइये आज हम महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) के बारें में अध्यन करेंगे

Table of Contents

महाराणा प्रताप का परिचय

महाराणा प्रताप का जन्म

9 मई, 1540 (ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया, विक्रम संवत्  1597) कुम्भलगढ़, राजस्थान में

महाराणा प्रताप के पिता का नाम

महाराणा उदय सिंह II

महाराणा प्रताप की माता का नाम

जीवन्त कंवर

महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक

राणा उदयसिंह अपनी दूसरी रानी धीर कवंर के प्रभाव में आकर महाराणा प्रताप के स्थान पर जगमाल को अपना उत्तराधिकारी बना गया परन्तु राणा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात् परन्तु महाराणा उदयसिंह के सामन्तों (सोनगरा अखैराज, कृष्णदास) ने   होली के त्यौहार के दिन 28 फरवरी, 1572 ई. को महाराणा प्रताप का गोगूंदा में राज्याभिषेक (coronation) किया।

जगमाल(Jagmaal)

 इससे जगमाल नाराज हो कर अकबर की शरण में चला गया और आजीवन मेवाड़ (महाराणा प्रताप) का शत्रु बना रहा सन 1583 ईसवी दत्ताणी सिरोही की युद्ध में जगमाल की मृत्यु हो गयी। 

महाराणा प्रताप के समय मेवाड़ की स्थिति

चित्तौड़ सहित मेवाड़ के अधिकांश भागों पर मुगलों का अधिकार हो चुका था और अकबर मेवाड़ के बचे हुए क्षेत्र पर भी अपना अधिकार करना चाहता था। इस समय के कवियों ने चित्तौड़ के विध्वंस और उसकी दीन दशा को देखकर उसे आभूषण रहित विधवा स्त्री (widow without jewelery) की उपमा तक दे दी थी।

अन्य राजपूत रियासतों द्वारा अकबर की अधीनता स्वीकारना

सन 1572 ईसवी तक सभी राजपूत रियासतों आमेर, बीकानेर व जैसलमेर ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली, परन्तु शासक बनने पर महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार न कर मातृभुमि की स्वधीनता(freedom of the motherland) को महत्व दिया और अपने वंश की प्रतिष्ठा(Prestige) के अनुकूल संघर्ष का मार्ग चुना।

महाराणा प्रताप द्वारा अपने सामंतों के आत्मविश्वास को जाग्रत करना

मेवाड़ पर मुगलों के आक्रमणों(attacks) से प्रताप के अन्य सांमतों के साहस(courage) में कमी आने लगी। ऐसी स्थिति में प्रताप ने सब सांमतों को एकत्रित कर उनके सामने रघुकुल की मर्यादा(Limit) की रक्षा करने और मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्र करने का विश्वास दिलाया और प्रतिज्ञा की कि जब तक मेवाड़ को स्वतंत्र नहीं करा लूंगा तब तक राज महलों(Raj Mahals) में नहीं रहुंगा, पलंग पर नहीं सोऊंगा और पंच धातु (gold, silver, copper and brass, bronze) (सोना, चांदी, तांबा और पीतल, काँसा) के बर्तनों में भोजन नहीं करूँगा।

महाराणा प्रताप आत्मविश्वास (Self-confidence) के साथ मेवाड़ के स्वामीभक्त (swami bhakt)सरदारों तथा भीलों की सहायता से शक्तिशाली सेना का संगठन(powerful army organization) किया और मुगलों से अधिक दूर रहकर युद्ध का प्रबन्ध करने के लिए अपनी राजधानी गोगुन्दा से कुंभलगढ़ स्थानान्तरित (Capital shifted from Gogunda to Kumbhalgarh)की।

महाराणा प्रताप द्वारा मेवाड़ राज्य में अकबर की सत्ता के विरुद्ध किए जा रहे प्रयास की जानकारी मिलने लगी।

महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करवाने के लिए भेजे गये चार दूतों का विवरण 

अकबर पहल करते हुए महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करवाने के लिए 1572 ईसवी से 1573 ईसवी के बीच चार दूत भेजे परन्तु वह प्रताप को अधीनता में लाने में असफल रहे जो निम्न प्रकार है

  1. दरबारी जलाल खां को 1572 ईसवी में भेजा
  2. राजकुमार मानसिंह को जून 1573 ईसवी में भेजा
  3. राजा भगवंत दास को सितम्बर 1573 ईसवी में भेजा
  4. टोडरमल को दिसम्बर 1573 ईसवी में भेजा

अकबर द्वारा महाराणा प्रताप को अधीनता में लाने के लिए हल्दीघाटी युद्ध की योजना 

महाराणा प्रताप से हल्दीघाटी नामक स्थान (Haldighati place)पर युद्ध की योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिए मार्च 1576 ई. में अकबर स्वयं अजमेर जा पहुँचा हल्दीघाटी के युद्ध की रणनीति अजमेर (अकबर के किले) में बनाई गयी एवं इसमें प्रमुख सेनापति मानसिंह और आसफ खां को नियुक्ति किया गया

हल्दी घाटी (राजसमंद) का युद्ध

3 अप्रेल 1576 ई. को मानसिंह सेना लेकर मेवाड़ विजय के लिए चल पड़ा। मानसिंह को मेवाड़ के विरूद्ध भेजी जाने वाली सेना का सेनानायक घोषित किया। अपने सैन्य बल में वृद्धि करने के लिए दो माह माण्डलगढ़ में रहा इसके बाद मानसिंह(Man Singh) खमनौर गांव के पास आ पहुँचा।

राजा मानसिंह

इस समय मानसिंह के साथ गाजीखां बदख्शी, ख्वाजा गयासुद्दीन अली, सैयद हाशिम खां, मिहत्तर खां,  आसिफ खां, सैयद अहमद खां, जगन्नाथ कछवाह, भगवंतदास का भाई माधोसिंह, मुजाहिद बेग, सैयद राजू  आदि सरदार उपस्थित थे।

मुगल इतिहास (Mughal History) में यह पहला अवसर था जब किसी हिन्दू(Man Singh) को इतनी बड़ी सेना का सेनापति बना कर भेजा गया था।

मानसिंह को मुगल सेना का प्रधान सेनापति (commander in chief) बनाये जाने से मुस्लिम दरबारियों में नाराजगी फैल गई।

बदायूंनी ने अपने संरक्षक नकीब खां से भी इस युद्ध में चलने के लिए कहा तो उसने उत्तर दिया कि “यदि इस सेना का सेनापति (commander)एक हिन्दू न होता, तो मैं पहला व्यक्ति(first person) होता जो इस युद्ध (war) में शामिल होता।”

ग्वालियर के राजा रामशाह और पुराने अनुभवी यौद्धाओं ने राय दी कि मुगल सेना के अधिकांश सैनिकों को पर्वतीय भाग में लड़ने का अनुभव नहीं है। अतः उनको पहाड़ी भाग में घेर कर नष्ट कर देना चाहिए।

किन्तु युवा वर्ग(youth group) ने इस राय को चुनौती देते हुए इस बात पर जोर दिया कि मेवाड़ के बहादुरों को पहाड़ी भाग से बाहर निकल कर शत्रु सेना को खुले मैदान में पराजित करना चाहिए।

अंत में मानसिंह ने बनास नदी के किनारे मोलेला में अपना शिविर स्थापित किया तथा प्रताप ने मानसिंह से छः मील दूर लोसिंग गांव में पड़ाव डाला।

सेना का सबसे आगे वाला भाग(avant-garde) (हरावल) का नेतृत्व सैयद हाशिम मुगल सेना में कर रहा था।

उसके साथ मुहम्मद बादख्शी रफी(Muhammad Badakhshi Rafi), राजा जगन्नाथ और आसफ खां थे।

महाराणा प्रताप की सेना के दो भाग थे

प्रताप की सेना के हरावल में हकीम खां सूरी, अपने पुत्रों सहित ग्वालियर का रामशाह, पुरोहित गोपीनाथ, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास, शंकरदास, चारण जैसा, देवगढ़ का रावत सांगा पुरोहित जगन्नाथ, सलूम्बर का चूड़ावत कृष्णदास, सरदारगढ़ का भीमसिंह आदि शामिल थे।

महाराणा स्वयं दूसरे भाग का नेतृत्व सेना के केन्द्र में कर रहे थे, जिनके साथ भामाशाह(Bhamashah) व उनका भाई ताराचन्द था

18 जून 1576 प्रातःकाल(early morning) प्रताप ने लोसिंग से हल्दीघाटी में गोगुन्दा (gogunda) की ओर बढ़ती सेना का सामना करने का निश्चय कर कूच किया।

मुगल सेना का बल तोड़ने के लिए राणा ने अपने हाथी लूना को युद्ध के प्रथम भाग में आगे बढ़ाया जिसका मुकाबला मुगल हाथी गजमुख (गजमुक्ता) ने किया।

अकबर की सेना का हाथी गजमुख(Elephant Gazmukh) घायल होकर भागने ही वाला था कि लूना का महावत(elephant driver) तीर लगने से घायल हो गया और लूना लौट पड़ा। इस पर महाराणा के विख्यात हाथी रामप्रसाद(Hathi Ramprasad) को मैदान में उतारना पड़ा।

 युद्ध का प्रारम्भ प्रताप की हरावल (avant-garde) सेना के भीषण आक्रमण से हुआ। मेवाड़ के सैनिकों ने अपने तेज हमले और वीरतापूर्ण युद्ध कौशल द्वारा मुगल पक्ष की अग्रिम पंक्ति व बायें पार्श्व को छिन्न-भिन्न कर दिया।

बदायूंनी(badauni)

बदायूंनी(badauni) के अनुसार इस हमले से घबराकर मुगल सेना लूणकरण(embalming) के नेतृत्व में भेड़ों के झुण्ड(flock of sheep) की तरह भाग निकली।

इस समय जब प्रताप के राजपूत सैनिकों(Rajput soldiers) और मुगल सेना के राजपूत सैनिकों के मध्य फर्क करना कठिन हो गया तो बदायूंनी(badauni) ने यह बात मुगल सेना के दूसरे सेनापति आसफ खां(Asaf khan) से पूछी।

आसफ खां(Asaf khan)

आसफ खां(Asaf khan) ने कहा कि “तुम तो तीर चलाते जाओ। राजपूत किसी भी ओर का मारा जाय, इससे इस्लाम(Islam) का तो लाभ ही होगा।” मानसिंह(Man Singh) को मुगल सेना का सेनापति(commander of the Mughal army) बनाने का बदायूंनी भी विरोधी था,

किन्तु जब उसने मानसिंह(Man Singh) को प्रताप के विरूद्ध(against) बड़ी वीरता और चातुर्य से लड़ते देखा तो प्रसन्न हो गया।

युद्ध के दौरान(During) सैयद हाशिम घोड़े से गिर गया और आसफ खां ने पीछे हटकर मुगल सेना के मध्य भाग में जाकर शरण ली। जगन्नाथ कछवाहा भी मारा जाता किन्तु उसकी सहायता के लिए चंदावल (सेना में सबसे पीछे की पंक्ति) से सैन्य टुकड़ी(troop) लेकर माधोसिंह कछवाहा आ गया।

मिहतर खां(Mihtar Khan)  

मुगल सेना(Mughal army) के चंदावल में मिहतर खां(Mihtar Khan) के नेतृत्व में आपात स्थिति के लिए सुरक्षित सैनिक(safe soldier) टुकड़ी रखी गई थी।

अपनी सेना को भागते देख मिहतर खां आगे की ओर चिल्लाता हुआ आया कि “बादशाह सलामत एक बड़ी सेना(a large army) के साथ स्वयं आ रहे हैं।” इसके बाद स्थिति बदल गई और भागती हुई मुगल सेना(Mughal army) नये उत्साह और जोश के साथ लौट पड़ी।

राणा प्रताप अपने प्रसिद्ध घोड़े ‘चेतक’ पर सवार होकर(riding on) लड़ रहा था और मानसिंह ‘मरदाना’ नामक हाथी पर सवार था।(He was riding an elephant named ‘Mardana’.)

महाराणा प्रताप और मानसिंह(Maharana Pratap and Mansingh)

रणछोड़ भट्ट(Ranchod Bhatt) कृत संस्कृत ग्रंथ ‘अमरकाव्य'(epic poem) में वर्णन है कि प्रताप ने बड़े वेग के साथ चेतक के अगले पैरों को मानसिंह के हाथी के मस्तक पर टिका दिया और अपने भाले से मानसिंह पर वार किया। (attack on Mansingh)

मानसिंह(Mansingh) ने होदे में नीचे झुक कर अपने को बचा लिया किन्तु उसका महावत।(elephant driver) मारा गया इस हमले में मानसिंह के हाथी की सूंड पर लगी तलवार से चेतक का एक अगला पैर कट गया।( Chetak’s front leg was cut off)

 झाला बीदा(Jhala bida)

प्रताप को संकट में देखकर बड़ी सादड़ी के झाला बीदा(Jhala bida) ने राजकीय छत्र स्वयं धारण कर युद्ध जारी रखा और प्रताप ने युद्ध को पहाड़ों की ओर मोड लिया।( turned the war towards the mountains)

 चेतक(Chetak)

हल्दीघाटी(Haldighati) से कुछ दूर बलीचा नामक स्थान(place called Balicha) पर घायल चेतक(Chetak) की मृत्यु हो गई(Injured Chetak died), जहाँ उसका चबूतरा आज भी बना हुआ है। (Where his platform is still standing.)

महाराणा प्रताप की तरफ से युद्ध में शहीद हुए सरदार 

हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप(Maharana Pratap) की तरफ से झाला बीदा, मानसिंह सोनगरा(Mansingh Songra), जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास(Ramdas, son of Jaimal Mertiya), रामशाह(Ramshah) और उसके तीन पुत्र ( शालिवाहन, भवानीसिंह व प्रतापसिंह) वीरता का प्रदर्शन करते हुए मारे गए। (killed in a display of gallantry)

महाराणा प्रताप की तरफ से युद्ध में बचे हुए सरदार 

सलूम्बर का रावत कृष्णदास चूड़ावत(Rawat Krishnadas Chudawat), घाणेराव का गोपालदास(Gopaldas of Ghanerao), भामाशाह, ताराचन्द(tarachand) आदि रणक्षेत्र(battlefield) में बचने वाले प्रमुख सरदार थे।

महाराणा प्रताप का युद्ध में रण कौशल का प्रदर्शन  

जब युद्ध पूर्ण गति पर था,( when the war was in full swing) तब प्रताप ने युद्ध स्थिति में परिवर्तन किया।( changed) युद्ध को पहाड़ों(mountains) की ओर मोड़ दिया। मानसिंह ने मेवाड़ी सेना का पीछा नहीं किया। मुगलों(Mughals) द्वारा प्रताप की सेना का पीछा न करने के बदायूनी(badauni) ने तीन कारण बताये हैं

1. जून माह की झुलसाने वाली तेज धूप (scorching sun)

2. मुगल सेना की अत्यधिक थकान से युद्ध करने कि क्षमता न रहना। (incapable of fighting)

3. मुगलों को भय था(Mughals were afraid) कि प्रताप पहाड़ों में घात लगाए हुए है (ambushed in the mountains) और उसके अचानक आक्रमण से अत्यधिक सैनिकों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।( life will be in danger)

अकबर(Akbar) का हल्दीघाटी सैन्य अभियान असफल रहा

इस तरह अकबर की इच्छानुसार(as desired) वह न तो प्रताप को पकड़ सका(could catch) अथवा मार सका और न ही मेवाड़ की सैन्य शक्ति(Military power of Mewar) का विनाश कर सका।

अकबर(Akbar) का यह सैन्य अभियान असफल रहा तथा पासा महाराणा प्रताप(Maharana Pratap) के पक्ष में था। युद्ध के परिणाम(result) से खिन्न अकबर ने मानसिंह(Man Singh) और आसफ खां की कुछ दिनों के लिये ड्योढ़ी बंद कर दी अर्थात् उनको दरबार में सम्मिलित होने से वंचित कर दिया।

शंहशाह अकबर की विशाल साधन(huge instrument) सम्पन्न सेना का गर्व मेवाड़ी सेना(Mewari Army) ने ध्वस्त कर दिया।

जब राजस्थान के राजाओं में मुगलों(Mughals) के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उनकी अधीनता मानने की होड़ मची हुई थी, उस समय प्रताप द्वारा स्वतन्त्रता(Freedom by Pratap) का मार्ग चुनना निसंदेह सराहनीय(Commendable) कदम था ।

शाहबाज खां(Shahbaz Khan) के अभियान

हल्दीघाटी(Haldighati) युद्ध के बाद अकबर(Akbar) ने प्रताप को पूरी तरह से कुचलने के लिए मीरबख्शी शाहबाज खां(Mirbakshi Shahbaz khan) को तीन बार प्रताप के विरूद्ध(against) भेजा।

15 अक्टूबर 1577 ई. को शाहबाज खां को प्रथम बार मेवाड़ के लिए रवाना किया गया प्रथम आक्रमण के समय शाहबाज खां(Shahbaz Khan) ने केलवाड़ा गांव पर अधिकार कर कुम्भलगढ़ का घेरा डाला, फिर भी उसको लेने में सफलता(Success)नहीं मिली(Success) और कुछ समय बाद प्रताप ने पुनः अधिकार कर लिया।

भाण सोनगरा(Bhan Sonagara)

महाराणा प्रताप राव अक्षयराज के पुत्र भाण सोनगरा(Bhan Sonagara) को किलेदार नियुक्त कर अपने सैनिकों के साथ ईडर की तरफ निकल गया और चुलिया गांव में ठहरा।

भामाशाह(Bhamashah)

यहाँ भामाशाह और उसके भाई ताराचन्द(Tarachand) ने पच्चीस लाख रूपये(twenty five lakh rupees) एवं बीस हजार अशर्फियां राणा को भेंट की।

भामाशाह(Bhamashah) की सैनिक एवं प्रशासनिक(administrative) क्षमता को देखकर प्रताप ने इसी समय रामा महासहाणी(Rama Mahasahani) के स्थान पर उसे मेवाड़ का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया।

अकबर के चाचा सुल्तान खां

भामाशाह से आर्थिक सहायता(Financial assistance from Bhamashah) प्राप्त हो जाने के बाद प्रताप ने सेना का पुनर्गठन किया और जुलाई 1582 ई. में अवसर देखकर दिवेर (राजसमंद) के दर्रे पर कायम मुगलों के थाने पर हमला(Attack) किया।

इस थाने पर अकबर के चाचा सुल्तान खां का नियन्त्रण(Control) था । संघर्ष के दौरान अमरसिंह ने अपना भाला इतनी शक्ति से मारा(hit with power) कि वह सुल्तान खां मुगल को बेधता हुआ उसके घोड़े के भी आर-पार हो गया(crossed over)।

दिवेर की विजय के बाद इस पर्वतीय भाग पर प्रताप का अधिकार हो गया(got right)। कर्नल टॉड ने दिवेर के युद्ध को मेवाड़ के मेराथन’ की संज्ञा दी है।

महाराणा प्रताप के विरूद्ध अंतिम अभियान(Final campaign against Maharana Pratap)

अकबर(Akbar) ने 6 दिसम्बर 1584 ई. को जगन्नाथ कछवाहा (आमेर के राजा भारमल का छोटा पुत्र) को अजमेर(Ajmer) का सूबेदार बनाकर मेवाड़ पर आक्रमण(invasion of mewar) के लिए भेजा।

जगन्नाथ(Jagannath) कुछ भी विशेष नहीं कर पाया और निराश(disappoint) होकर 1585 ई. में मेवाड़ से चला गया।(Went from Mewar in 1585 AD) जगन्नाथ कछवाह का आक्रमण मेवाड़ पर प्रताप के समय अंतिम आक्रमण सिद्ध हुआ।

अकबर की विवशता

 अब अकबर को विश्वास हो गया कि महाराणा प्रताप(Maharana Pratap) को पकड़ पाना अथवा उससे अपनी प्रभुसत्ता(sovereignty) स्वीकार कराने का प्रयत्न केवल एक कल्पना मात्र है।( The effort is just a fantasy.) साथ ही अकबर अब पश्चिमोत्तर समस्या में उलझ गया गया था। इस कारण प्रताप के विरुद्ध अभियान (campaign against) हमेशा के लिए बंद कर दिए गए।

महाराणा प्रताप का शांतिपूर्ण शासनकाल

प्रताप को लगभग 12 वर्ष शांति और स्वाधीनता का उपयोग करने का अवसर मिला। इस अवसर का लाभ उठाकर उसने मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम, उत्तर-पूर्व तथा मध्य भाग में फैले हुए मुगल थानों(Mughal Police Stations) पर धावे बोलने प्रारम्भ कर दिये।

तुरन्त ही महाराणा प्रताप ने 36 स्थानों के मुगल थाने उठा दिये, जिनमें मोही, उदयपुर(Udaipur) , गोगुन्दा मांडल, पानरवा आदि प्रमुख थे।

उदयपुर से प्राप्त 1588 ई. के एक लेख में प्रताप द्वारा त्रिवेदी सादुलनाथ(Trivedi Sadulnath) को जहाजपुर के निकट मंडेर की जागीर(Jagir) प्रदान करने का उल्लेख है।

इससे पता चलता है कि प्रताप ने उस समय तक मेवाड़ के उत्तर-पूर्वी प्रदेश(North Eastern Region) पर पुनः अधिकार(Rights) कर लिया था और अपने विश्वसनीय अनुयायियों को जागीरें(Jagirs) प्रदान कर पुनर्निर्माण(Reconstruction) के कार्य में व्यस्त था ।

1585 ई. के बाद उसने अपनी राजधानी चावण्ड(Capital Chavand)के विकास पर पूरा ध्यान दिया और यहाँ अनेक महल व मंदिर बनवाए ।

जीवधर(Jeevdhar) की रचना ‘अमरसार'(Amarsar) के अनुसार प्रताप ने ऐसा सृदृढ़ शासन(strong rule) स्थापित कर लिया था कि महिलाओं और बच्चों(women and children) तक को किसी से भय नहीं रहा ।

आन्तरिक सुरक्षा भी लोगों को इतनी प्राप्त हो गई थी कि बिना अपराध के किसी को कोई दण्ड नहीं दिया जाता था। उसने शिक्षा प्रसार के भी प्रयत्न किए।

विद्वानों के संरक्षक के रूप में महाराणा प्रताप

1588 ई. के अंत तक प्रताप ने चित्तौड़, माण्डलगढ़ तथा अजमेर से उनको जोड़ने वाले अंतर्वर्ती क्षेत्रों के अतिरिक्त प्रायः सम्पूर्ण मेवाड़ पर अधिकार कर लिया। मुगल आक्रमण(attack) बंद होने के कारण महाराणा प्रताप(Maharana Pratap) ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों(last years of life) चावंड(Chawand) में शांतिपूर्वक(peacefully) राज्य करते हुए बिताए ।

शांतिकाल में राजधानी चावंड ने बड़ी तरक्की की। यहाँ कलात्मक भवनों एवं मंदिरों का निर्माण हुआ। व्यापार-वाणिज्य, कला, साहित्य और संगीत को प्रोत्साहन मिलने लगा।

प्रताप के संरक्षण में चावण्ड में रहते हुए चक्रपाणि मिश्र ने तीन संस्कृत ग्रंथ – राज्याभिषेक पद्धति, मुहुर्त्तमाला एवं विश्ववल्लभ लिखे। ये ग्रंथ – क्रमशः गद्दीनशीनी की शास्त्रीय पद्धति, ज्योतिषशास्त्र और उद्यान विज्ञान(horticulture) के विषयों से सम्बन्धित है।

महाराणा प्रताप(Maharana Pratap) के राज्यकाल में भामाशाह(Bhamashah) के भाई ताराचंद(Tarachand) की प्रेरणा से 1595 ई. में हेमरत्न सूरि द्वारा गोरा बादल(Gora Baadal) कथा पद्मिनी चौपई’ काव्य ग्रंथ(poetry books) की रचना की गई।

सैनिकों(soldiers) में त्याग और बलिदान की भावना(spirit of sacrifice) उत्पन्न करने के लिए चारण कवि रामा सांदू(Poet Rama Sandu) और माला सांदू(mala sandu) महाराणा प्रताप(Maharana Pratap) की सेना के साथ रहते थे।

महाराणा प्रताप के शौर्य के बारे में रामा सांदू(Rama Sandu) ने गुणगान करते हुए लिखा है कि ‘अकबर(Akbar) एक पक्षी के समान है जिसने अनन्त आकाश(Eternal sky) रुपी प्रताप की थाह पाने के लिए उड़ान भर ली, पर वह उसका पार नहीं पा रहा है। अंत में हार कर उसे अपनी हद में रहना पड़ा।’

इसी काल में चावंड में प्रसिद्ध चित्रकार निसारदी (नासिरूद्दीन) हुआ। महाराणा की चारित्रिक विशेषताएं

महाराणा प्रताप द्वारा निहत्थे पर वार नहीं करना

उन्होंने कभी भी निहत्थे(unarmed) पर वार नहीं करने का प्रण ले रखा था। वे सदैव दो तलवार(Sword) रखते थे एक तलवार दुश्मन(Enemy) को देने के लिए भी रखते थे।

मेवाड का राजचिह्न सामाजिक समरसता प्रतीक है। एक तरफ क्षत्रिय व एक तरफ भील योद्धा, सर्व समाज समभाव का सूचक है। महाराणा प्रताप सभी के प्रिय थे, सब लोग उनके लिए प्राण(Life) देने के लिए तैयार(Ready) रहते थे।

महाराणा प्रताप स्वतंत्रता प्रेमी

महाराणा प्रताप(Maharana Pratap) स्वाधीनता प्रेमी थे। अनेक कष्टों(sufferings) के बाद भी किसी भी कीमत पर अकबर(Akbar) की अधीनता(subordination) स्वीकार करने के लिए तैयार(Ready) नहीं हुए।

धर्म रक्षक व राजचिह्न(regalia) सम्मान धर्म रक्षक व राजचिह्न की सदैव रक्षा की। उनकी मान्यता थी, जो दृढ़ राखे धर्म(Religion) को तिहि राखे करतार ।

शील स्त्री सम्मान

नारी सम्मान के लिए भारतीय परम्परा का उदाहरण प्रस्तुत किया। कुंवर अमरसिंह ने 1580 ई. में जब अचानक शेरपुर के मुगल शिविर पर आक्रमण कर सूबेदार अब्दुर्हीम खानखाना के परिवार को बंदी बना लिया गया, तब

प्रताप ने खानखाना(Khankhana) की स्त्रियों एवं बच्चों को ससम्मान(respectfully) एवं सुरक्षित(Safe) वापस लौटाने के आदेश भिजवाये ।

महाराणा प्रताप की विलक्षण सहयोगी प्रतिभा(prodigious collaborative talent) के कारण ही भामाशाह(Bhamashah) ने अपनी समस्त सम्पदा महाराणा प्रताप(Maharana Pratap) के चरणों में समर्पित कर दी।

महाराणा प्रताप की मृत्यु

29 जनवरी, 1597 चावण्ड में धनुष की प्रत्यंचा(bow string) खींचने के प्रयत्न में प्रताप घायल हो गया और उनका 19 जनवरी 1597 ई. को 57 वर्ष(57 years) की आयु में देहान्त हो गया। चावंड से ढ़ाई किलोमीटर दूर बण्डोली गांव(Bandoli Village) के निकट बहने वाले नाले के किनारे उनका दाह संस्कार(Daah Sanskar) किया गया।

दूरसा आढ़ा ने महाराणा प्रताप(Maharana Pratap) के बारे में लिखा है

अस लेगो अणदाग पाघ लेगो अणनामी ।( As Lego Undag Pagh Lego Annami)

गौ आडा गवड़ाय, जिको बहतो धुरवामी।।( Gau Aada Gavaday, Jiko Bato Dhurwami)

नवरोजे नह गयो, नगौ आतसां नवल्ली। (Navroje nah gayo, nagou atsan navali)

नगौ झरोखा हेठ, जेठ दुनियाण दहल्ली ।।( Nagau Jharokha Heth, Jeth Dushan Dahalli)

(जिसने कभी अपने घोड़ों(horses) को शाही सेना में भेज कर दाग नहीं लगवाया, जिसने अपनी पगड़ी किसी के आगे नहीं झुकाई, जो सदा शत्रुओं के प्रति(to the enemies) व्यंग्य(Sarcasm) भरी कविताएं(poems) गाता था, जो समस्त भारत के भार की गाड़ी(Vehicle) को बायें कन्धे से खींचने में समर्थ था, जो कभी नौरोज में नहीं गया, जो शाही डेरों(Royal tents) में नही गया और जिस अकबर के झरोखे की प्रतिष्ठा विश्व भर में व्याप्त थी, वह उसके नीचे भी नहीं आया। ऐसा गहलोत (महाराणा प्रताप ) विजय के साथ मृत्यु के पास चला गया।)

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