Rathores of Bikaner

आइये आज हम बीकानेर के राठौड़(Rathores of Bikaner) वंश के बारे में अध्ययन करेंगे

राव बीका (1465-1504 ई.)

राव बीका मारवाड़ के राव जोधा का पांचवा पुत्र था। ऐसा कहा जाता है कि  जांगल प्रदेश को राव बीका और उसके मित्र  जाट नेता नरा ने मिलकर जीता, दोनों के नाम पर इस राज्य का नाम बीकानेर रखा।

राव बीका के अनुसार उन्हें राज्य प्राप्ति के लिए  करणी देवी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था जिससे बीका ने अनेक छोटे-बड़े कबीलों को 23 वर्ष के अथक परिश्रम से जीतकर बीकानेर में राठौड़ वंश की स्थापना की

राव बीका ने सन 1488 ई. में बीकानेर नगर बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया

राव बिका के समय उसके राज्य में पूंगल, सिरसा, लाडनू, भटिंडा, सिधाना, रिनी नोहर आदि क्षेत्र सम्मिलित थे  

राव बीका की मृत्यु सन 1504 ई. में हो गई।

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राव नरा

राव बिका की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र नरा बीकानेर का शासक बना। 

राव नरा का देहान्त 13 जनवरी, 1505 ई. को हो जाने के कारण और राव नरा के निःसन्तान होने से उसका छोटा भाई लूणकर्ण बीकानेर का शासक बना।

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कलियुग का कर्ण राव लूणकर्ण (1505-1526 ई.)

राव नरा की मृत्यु के बाद राव बिका का छोटा पुत्र राव लूणकर्ण बीकानेर का शासक बना

राव बिका की मृत्यु के बाद में उसके राज्य में कई इलाकों में लूटमार और अशांति उत्त्पन्न हो गई परन्तु राव लूणकर्ण भी अपने पिता की भाँति साहसी और वीर योद्धा था।

 रुद्रेवा पर विजय

राव लूणकर्ण ने सर्वप्रथम सन 1509 ई. में रुद्रेवा पर आक्रमण किया सात माह की घेरा बंदी के पश्चात् रुद्रेवा के शासक मानसिंह को परास्त कर अपना अधिकार कर लिया

फतहपुर कायमखानियों पर अधिकार

फतहपुर पर कायमखानियों का अधिकारथाउनके नेता दौलत खां और रंग खां में मनमुटाव था स्तिथि का फायदा उठा कर राव लूणकर्ण ने सन 1512 ई. में फतहपुर पर आक्रमण कर दिया

कुछ समय तक कायमखानियों द्वारा राव लूणकर्ण का सामना कर अंत में मैदान छोड़ कर भागना पड़ा

इसके पश्चात् कायमखानियों ने 120 गाँव राव लूणकर्ण को देकर संधि कर ली राव लूणकर्ण ने प्रमुख स्थानों पर अपनी चौकियाँ स्थापित करदी की जिससे भविष्य में शक्तिशाली ना हो सके।

चायलवाड़ा(हिसार और सिरसा)

राव लूणकर्ण के समय हिसार और सिरसा के किनारे वाले भाग को चायलवाड़ा कहते थे वहाँ के कुछ राजपूत सरदार बागी हो गए थे

उनको दबाने के लिए राव लूणकर्ण सेना लेके पहुँचा तो उसकी सूचना पाते ही चायल का सरदार जिसका नाम पूना था भटनेर की तरफ भाग गया

राव लूणकर्ण ने हिरेदसर, सहावा एवं गडीणियाँ के बिच के चायलवाडो से 440 गाँव अपने अधिकार में कर लिए और कई स्थानों पर अपनी चौकियाँ बैठा दी।

नागौर के मुहम्मद खां

नागौर के शासक मुहम्मद खां ने जब बीकानेर पर आक्रमण किया तो राव लूणकर्ण ने मुहम्मद खां को परास्त किया

जैसलमेर के किले पर आक्रमण

राव लूणकर्ण ने अपने शत्रुओं को दबाने के बाद जैसलमेर की और प्रस्थान किया जैसलमेर के किले पर आक्रमण से पूर्व राव लूणकर्ण ने आस-पास के इलाके को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया

राव जैतसी स्थिति को काबू से बहार पाकर किले को छोड़ कर भाग गया परन्तु वह बंदी बना लिया गया और बचे हुए भाटियों ने कुछ समय संघर्ष करने के पश्चात् संधि करने के लिए प्रार्थना की राव लूणकर्ण ने राव जैतसी को छोड़ दिया और राव जैतसी की पुत्रियों का विवाह अपने पुत्रों से कर दिया

नारनौल के शेख अबीमीरा

राव लूणकर्ण को जब चारों तरफ विजय ही विजय मिल रही थी तब उसने राजस्थान के उत्तरी भाग को भी अपने अधिकार में करने का निश्च्य किया

इसी कारण उसने शीघ्र ही कन्थालिया, डीडवाना, बागड़, नरहद, सिंघाना आदि पर अधिकार कर नारनौल की तरफ बढ़ा उस समय नारनौल का नावाब शेख अबीमीरा था

नावाब की स्थिति अकेले राव लूणकर्ण से मुकाबला करने की नहीं थी परन्तु उसके साथ अन्य कई राजपूत सरदार जा मिले जो राव लूणकर्ण की बढती शक्ति से अप्रश्न्न थे

विशेष रूप से भाटी और जोहियों ने सुरुआत में तो राव लूणकर्ण के साथ रहने का झुकाव बताया परन्तु गुप्त रीती से नवाब के साथ रहने का उन्होंने निशचय कर लिया था

जब घौसा(ढोसी) नामक स्थान के पास नवाब और राव लूणकर्ण की सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ तब भाटी और जोहियों तटस्थ हो गए राव लूणकर्ण की सेना को बहुसंख्यक विरोधी पक्ष का सामना करना अकेले करना पडा इसके फलस्वरूप युद्ध में व हारने लगा

राव लूणकर्ण के साथ प्रतापसी, वैरसी, नेतासी, आदि योद्धा अंत तक लड़ते हुए मारे गए यह घटना 31 मार्च 1526 ई. को हुई नारनौल के नवाब के साथ युद्ध में घौसा(ढोसी) नामक स्थान पर लूणकर्ण की मृत्यु हो गयी।

कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकाव्यम् में राव लूणकर्ण की दानशीलता की तुलना कर्ण से की है राव लूणकर्ण बड़ा दानी था।  

इसी प्रकार बीटू सूजा ने अपने ‘जैतसी रो छन्द’ में उसे ‘कलियुग का कर्ण’ माना है।

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राव जैतसी (1526-1542 ई.)

राव लूणकर्ण की मृत्युके पश्चात राव जैतसी बीकानेर का शासक बना

खानवा का युद्ध

राव जैतसी ने अपने पुत्र कुंवर कल्याणमल को ससैन्य खानवा के युद्ध में राणा सांगा के पक्ष में सहायता देकर भेजा

खानवा का युद्ध राणा सांगा एवं बाबर के मध्य 1527 ई. में हुआ। इस युद्ध में राणा सांगा कि पराजय हुई और भारत में मुग़ल वंश का राज्य स्थापित हुआ।

बाबर का पुत्र कामरान

बाबर के पुत्र कामरान ने सन् 1534 ई. में भटनेर पर अधिकार कर लिया।

भटनेर पर अधिकार करने के पश्चात् कामरान ने बीकानेर पर आक्रमण कर अधिकार करने का प्रयास किया

परन्तु राव जैतसी ने अक्टूबर, 1534 को एक शक्तिशाली सेना एकत्रित कर कामरान पर अचानक आक्रमण कर दिया

इस आक्रमण से मुगल सेना बीकानेर छोड़कर भाग खड़ी हुई और राव जैतसी को इस युद्ध में विजय प्राप्त हुई।

कामरान और राव जैतसी के इस युद्ध की जानकारी निम्न साहित्य और अभिलेखों से भी प्राप्त होती है

बीठूं सूजा कृत ‘राव जैतसी रो छंद’ ग्रंथ

‘जैतसी रो पाधड़ी छन्द’,

 ‘जैतसी रासो’,

‘साख के गीतों से

इसी तरह इस युद्ध की पुष्टि बीकानेर के चिन्तामणि श्री नौवीसटाजी के जैन मन्दिर के मूलनायक की प्रतिमा के शिलालेख से भी होती है।

राव मालदेव जोधपुर शासक ने बीकानेर पर सन् 1541 ई. में आक्रमण कर दिया  इस युद्ध में राव जैतसी की मृत्यु हो गई और बीकानेर पर राव मालदेव का कब्जा हो गया।

पहोबा / साहेबा का युद्ध (1541-1542 ई.)

मालदेव ने अपने राज्य का विस्तार करने के लिए बीकानेर राज्य पर आक्रमण कर दिया राव मालदेव की सेना का नेतृत्व सेनानायक कूंपा ने किया

बीकानेर के शासक राव जैतसी व मारवाड़ के शासक मालदेव के बीच पहोबा / साहेबा का युद्ध 1541-42 ई. में हुआ।

इस युद्ध में बीकानेर की पराजय हुई और राव जैतसी मारा गया।  

मालदेव द्वारा इस युद्ध के बाद कूंपा को बीकानेर का व्यवस्थापक नियुक्त कर दिया गया।

इस युद्ध के पश्चात राव जैतसी का पुत्र कल्याणमल बीकानेर राज्य को पुन: प्राप्त करने हेतु शेरशाह की शरण में दिल्ली चला गया।

राव कल्याणमल (1544-1574 ई.)

राव जैतसी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राव कल्याणमल बीकानेर का  शासक बना, परन्तु  राज्य को पुन: प्राप्त करने हेतु राव कल्याणमल को शेरशाह की शरण में दिल्ली जाना पड़ा ।

परिणाम स्वरूप शेरशाह को मारवाड़ पर आक्रमण करने का अच्छा बहाना मिल गया

गिरि-सुमेल का युद्ध (1544ई.)

सन् 1544 ई. में शेरशाह सूरी ने मालदेव को गिरि-सुमेल के युद्ध में हरा दिया, इसमें राव जैतसी के पुत्र कल्याणमल ने शेरशाह की सहायता की थी। शेरशाह ने बीकानेर का राज्य राव कल्याणमल को दे दिया।

राव जैतसी का पुत्र राव कल्याणमल राव मालदेव(Rao Maldev) की पराजय के बाद सन् 1544 में बीकानेर का शासक बना।

राव कल्याणमल बीकानेर का पहला शासक था, जिसने  ने सन् 1570 ई. को अकबर के नागौर दरबार(Nagaur Durbar) में उपस्थित होकर अकबर की अधीनता स्वीकार की एवं मुगलों से वैवाहिक संबंध (matrimonial relationship) स्थापित किये।

राव कल्याणमल ने अपने छोटे पुत्र पृथ्वीराज, जो उच्च कोटि(high grade) का कवि(Poet) था, पृथ्वीराज को अकबर की सेवा में छोड़ दिया। पृथ्वीराज की गिनती अकबर के नवरत्नों(Navaratnas) में होती थी।

पृथ्वीराज द्वारा ‘बेलि किसन रुक्मिणी री'(‘Beli Kisan Rukmini Ri’) नामक प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ की रचना की गयी।

नागौर दरबार के पश्चात् अकबर ने राव कल्याणमल के पुत्र रायसिंह को 1572 ई. में जोधपुर की देखरेख के लिए नियुक्त किया।

सन् 1574 में राव कल्याणमल की मृत्यु हुई।

महाराजा रायसिंह (1574-1612)

महाराजा रायसिंह के बारे में अधिक जाकारी प्राप्त करने के लिए यहाँ klick करें महाराजा रायसिंह

महाराजा दलपतसिंह (1612-1613 ई.)

महाराजा रायसिंह सूरसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे।

बड़े पुत्र दलपतसिंह के होते हुये । परन्तु जब दलपतसिंह को यह मालुम चला तो वह जहांगीर की सेवा में उपस्थित हो गया जहांगीर ने दलपतसिंह को राय की उपाधि दी और बीकानेर का शासक नियुक्त कर दिया

कुछ दिनों बाद जहांगीर ने बीकानेर का शासक सूरसिंह को बीकानेर का शासक बनाया वह दलपतसिंह को बीकानेर के राज्य से हटाने के लिए नवाब जियाउद्दीन को भेजा इस युद्ध में दलपतसिंह की हार हुई  

दलपतसिंह का आचरण प्रतिकूल होने के कारण जहाँगीर ने रायसिंह के छोटे पुत्र सूरसिंह को टीका भेजा और दलपतसिंह को कैद कर मृत्युदण्ड दिया गया।

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महाराजा सूरसिंह (1613-1631 ई.)

सूरसिंह का जन्म 1594 ई. में हुआ  महाराजा रायसिंह के बड़े पुत्र दलपतसिंह की मृत्यु के बाद बीकानेर का शासक बना

शहजादा खुर्रम ने विद्रोह किया तो जहाँगीर ने उसके विरुद्ध सूरसिंह को भेजा, जिसमें उसे सफलता मिली।

खुर्रम शाहजहाँ के नाम से मुगल सम्राट बना तो शाहजहाँ ने सूरसिंह का मनसब बढ़ाकर 4000 जात / 4000 सवार कर दिया।

1628 ई. में काबुल का विद्रोह दबाने के लिए सूरसिंह को भेजा गया जिसमें वह सफल रहा।

इसी प्रकार ओरछा के शासक झुंझारसिंह बुंदेला का विद्रोह दबाना तथा उसे दरबार में हाजरी देने पर मजबूर किया।

इस तरह सूरसिंह की अन्य स्थानों पर भी नियुक्ति होती रही।

महाराजा सुरसिंह की मृत्यु

महाराजा सुरसिंह की मृत्यु 1631 में बुरहानपुर के नजदीक बौहरी गाँव में हुई ।

महाराजा कर्णसिंह (1631-1669 ई.)

महाराजा सुरसिंह की मृत्यु के बाद उनका बड़ा पुत्र कर्णसिंह 1631 ई. में बीकानेर राज्य का शासक बना।

महाराजा कर्णसिंहबीकानेर के वीर प्रतापी शासक थे इसलिए बादशाह औरंगजेब ने महाराजा कर्णसिंह जांगलधर बादशाह की उपाधि प्रदान की।

मुगल शहजादों में उत्तराधिकार संघर्ष के समय कर्णसिंह निष्पक्ष रहे। लेकिन महाराजा कर्णसिंह ने अपने दो पुत्रों – पद्मसिंह और केसरीसिंह को औरंगजेब की ओर से भेजा।

कर्णसिंह के शासन काल में की गई रचनाओं में साहित्य कल्पद्रुम व कर्णभूषण (गंगानंद मैथिली द्वारा रचित) प्रमुख हैं।

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महाराजा अनूपसिंह (1669-1698 ई.)

महाराजा अनूपसिंह ने 1669 ई. में बीकानेर के शासन की बागडोर संभाली।

महाराजा अनूपसिंह द्वारा दक्षिण में मराठों के विरुद्ध की गई कार्यवाहियों से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने महाराजा अनूपसिंह को ‘महाराजा’ एवं ‘माहीमरातिब’ की उपाधि प्रदान की।

महाराजा अनूपसिंह एक उच्च कोटि के विद्वान, कूटनीतिज्ञ, विद्यानुरागी एवं संगीत प्रेमी शासक थे।

महाराजा अनूपसिंह ने अनेक संस्कृत ग्रंथों यथा अनूपविवेक, काम-प्रबोध, अनूपोदय, श्राद्धप्रयोग, चिन्तामणि और गीतगोविन्द आदि की रचना की।

महाराजा अनूपसिंह के दरबारी विद्वानों यथा- मणिराम ने ‘अनूप व्यवहार सागर’ एवं ‘अनूपविलास’, अनंन भट्ट ने ‘तीर्थ रत्नाकर’ तथा भावभट्ट ने ‘संगीत अनूपाकुंश’, ‘अनूप संगीत विलास’, अनूप संगीत रत्नाकर’ की रचना की।

वैद्यनाथ, मणिराम, अनन्तभट्ट् भावभट्ट आदि प्रख्यात विद्वान महाराजा अनूपसिंह के दरबारी थे।

महाराजा ने दक्षिण भारत से अनेकों ग्रन्थ लाकर अपने पुस्तकालय में संरक्षित किये।

वर्तमान में अनूप पुस्तकालय में बड़ी संख्या में ऐतिहासिक व महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का  संकलन विद्यमान है।

दयालदास की ‘बीकानेर रा राठौड़ा री ख्यात’ में जोधपुर व बीकानेर के राठौड़ वंश का वर्णन मिलता है।

जोधपुर के राठौड़

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