SOURCES OF MAURYAN EMPIRE

SOURCES OF MAURYAN EMPIRE मौर्य साम्राज्य के स्रोत

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मौर्यकालीन इतिहास के समकालीन एवं परवर्ती स्रोतों को छह खण्डों में बाँटा जा सकता है—

(1) अभिलेखीय प्रमाण,

(2) साहित्यिक ग्रंथ,

(3) विदेशी स्रोत,

(4) पुरातात्विक उत्खनन,

(5) कलात्मक अवशेष,

(6) मुद्राएँ (सिक्के)।

अभिलेखीय प्रमाण

अभिलेखीय साक्ष्य मौर्य इतिहास के अत्यन्त प्रामाणिक एवं विश्वसनीय स्रोत हैं, इनमें अशोक के अभिलेख सर्वप्रमुख एवं सर्वोपरि हैं।

अशोक के अभिलेख (RECORD) भारत के प्राचीन, सर्वाधिक सुरक्षित एवं तिथियुक्त आलेख हैं।

ये शिलाओं, स्तम्भों और गुहाओं में उत्कीर्ण कराये गये थे, अभिलेखों की भाषा प्राकृत (पालि) है, अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं, लेकिन शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा (पश्चिमोत्तर प्रदेश) से प्राप्त अभिलेख खरोष्ठी लिपि में हैं, व तक्षशिला और लमगान (अफगानिस्तान) से प्राप्त अभिलेख अरेमाइक लिपियों में हैं, जबकि  कन्धार (अफगानिस्तान) से प्राप्त एक शिलालेख दो भाषाओं में लिखा है— यूनानी भाषा में और उसका रूपांतर अरेमाइक भाषा में है।

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अशोक के अभिलेखों को इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है
चौदह वृहद् शिलालेख

बड़े-बड़े शिलाखण्डों पर उत्कीर्ण ये चौदह बृहद् शिलालेख पूर्ण या आंशिक रूप में निम्नलिखित स्थानों पर मिले हैं

शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा (दोनों पाकिस्तान में),

गिरनार (जूनागढ़, गुजरात),

सोपारा (थाना जिला, महाराष्ट्र),

कालसी (देहरादून, उत्तरप्रदेश),

धौली  और जौगढ़ (दोनों उड़ीसा में), तथा

एर्रगुडी (कर्नूल, आन्ध्रप्रदेश) ।

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लघु शिलालेख

ये संख्या में दो हैं।

प्रथम लघु शिलालेख

शिलालेख रूपनाथ (जबलपुर, मध्यप्रदेश),

सहसराम (आरा, बिहार),

बैराठ (जयपुर, राजस्थान),

मास्की (रायचूर, आन्ध्रप्रदेश),

गोविमठ, पालकिगुण्डु (दोनों स्थान कर्नाटक में),

एर्रगुडी, (कर्नूल, आन्ध्रप्रदेश),

ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर तथा जटिंग-रामेश्वरम् (तीनों स्थान जिला चित्तलदुर्ग कर्नाटक में) से प्राप्त हुए हैं।

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द्वितीय लघु शिलालेख

शिलालेख केवल अंतिम चार स्थानों से प्राप्त हुआ है। अशोक के लघु शिलालेख बाद में इन स्थानों से भी हुए-

गुजर्रा (दतिया, मध्यप्रदेश),

अहरौरा (मिर्जापुर, उत्तरप्रदेश),

पनगुडिरिया ( सिहोर, मध्यप्रदेश),

सारो मारो (शहडोल, मध्यप्रदेश),

राजुल-मंडगिरि (कर्नूल, आंध्रप्रदेश),

सन्नती (गुलबर्गा, कर्नाटक),

बाहापुर (नई दिल्ली),

नित्तूर ( बेल्लारी, कर्नाटक),

उदेगोलिम (बेल्लारी, कर्नाटक ) ।

सात स्तम्भ लेख

ये संख्या में सात हैं और निम्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं—

दिल्ली-टोपरा (अम्बाला, हरियाणा),

दिल्ली-मेरठ,

कौशाम्बी इलाहाबाद,

लौरिया अरराज,

लौरिया-नन्दनगढ़, एवं रामपुरवा (अन्तिम तीनों स्थान चम्पारन जिला, बिहार में)।

दिल्ली टोपरा (DELHI TOPRA) स्तम्भ-लेख में ही अशोक के सात अभिलेख मिलते हैं, शेष सभी स्तम्भों पर छ. अभिलेख उत्कीर्ण हैं।

लघु स्तम्भ- लेख

तीन लघु स्तम्भ लेख सारनाथ, साँची तथा कौशाम्बी से प्राप्त हुए हैं, लुम्बिनी तथा निग्लीव (दोनों स्थान नेपाल की तराई में) से अशोक के भिन्न लघु स्तम्भ-लेख मिले हैं, इलाहाबाद से प्राप्त रानी का स्तंभ(QUEEN’S COLUMN) लेख भी लघु स्तम्भ-लेख की श्रेणी में गिना जाता है।

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बैराठ (भाब्रू) शिलालेख

यह बैराठ (जयपुर, राजस्थान) की एक पहाड़ी की चोटी से प्राप्त हुआ था और इस समय कोलकाता संग्रहालय में है, इस अभिलेख से बौद्ध धर्म के प्रति अशोक की श्रद्धा प्रकट होती है, यह अभिलेख बैराठ से ही प्राप्त हुआ था, लेकिन इसकी खोज करने वाले कैप्टेन बर्ट ने इसे गलती से भाब्रू (बैराठ से 20 किमी दूर) से प्राप्त लिख दिया;

भाब्रू में उस समय पुराविदों का शिविर लगा हुआ था, अतः इस अभिलेख का प्रचलित नाम ‘भाब्रू शिलालेख’ सही नहीं है, इसे ‘बैराठ शिलालेख’ या ‘कलकत्ता – बैराठ शिलालेख’ के नाम से उल्लिखित किया जाना चाहिए।

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पृथक् कलिंग शिलालेख

नवविजित कलिंग-प्रदेश में अशोक ने धौली तथा जौगढ़ (दोनों उड़ीसा में दो पृथक् शिलालेख प्रतिष्ठापित किये थे, ये दो शिलालेख 14 बृहद् शिलालेखों की श्रृंखला के अनुपूरक हैं।

गुहा अभिलेख

बिहार में गया के पास बाराबर की पहाड़ियों में अशोक के तीन गुफालेख मिले हैं, जिनमें इन गुफाओं को अशोक द्वारा आजीविक सम्प्रदाय के भिक्षुओं को दान में दिये जाने की सूचना है।

अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त शक राजा रुद्रदामन का गिरनार (जूनागढ़) अभिलेख ( 150 ई.) भी मौर्यकाल के बारे में कुछ जानकारी प्रदान करता है व नागार्जुनी गुहालेख में अशोक के उत्तराधिकारी दशरथ का उल्लेख है

साहित्यक ग्रंथ

बौद्ध ग्रंथों में दीपवंश, महावंश, दिव्यावदान, मिलिन्दपन्हो, महाबोधिवंश, महावंशटीका, आर्यमंजुश्रीमूलकल्प आदि से मौर्यकाल के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

जैनग्रंथों में भद्रबाहु का कल्पसूत्र तथा हेमचन्द्र द्वारा रचित परिशिष्टपर्वन एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है, ब्राह्मणग्रंथों में पुराण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, अन्य साहित्यिक स्रोतों में विशाखादत्त द्वारा रचित मुद्राराक्षस, कल्हण की राजतरंगिणी, सोमदेव का कथासरित्सागर और क्षेमचन्द्र की बृहत्कथा-मंजरी का उल्लेख किया जा सकता है जबकि मौर्यों के इतिहास से संबंधित साहित्यक स्रोतों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र है।

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कौटिल्य का अर्थशास्त्र

यह राजनीतिशास्त्र और लोकप्रशासन से संबंधित एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह पन्द्रह अधिकरणों (खण्डों) और 180 प्रकरणों (अध्यायों) में विभाजित है तथा यह संस्कृत गद्य एवं पद्य दोनों में लिखा गया है।

अर्थशास्त्र में चन्द्रगुप्त मौर्य या अन्य मौर्य शासकों का उल्लेख नहीं है, लेकिन यह कौटिल्य की रचना है, ऐसे उल्लेख अर्थशास्त्र में स्थल-स्थल पर मिलते हैं। कौटिल्य, जैसा कि हम अन्य साक्ष्यों से जानते हैं, चन्द्रगुप्त का मुख्य परामर्शदाता एवं प्रधानमंत्री था व कौटिल्य के अन्य नाम चाणक्य एवं विष्णुगुप्त हमें ज्ञात हैं।

लेकिन अर्थशास्त्र की तिथि के बारे में विद्वानों में विवाद है, विन्टरनित्ज, जौली, कीथ, एफ. डब्ल्यू. टॉमस, एच.सी. रायचौधरी और कुछ अन्य विद्वानों ने यह मत प्रस्तुत किया है कि अर्थशास्त्र एक परवर्ती रचना है और इसे मौर्यकाल की स्त्रोत सामग्री के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए।

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दूसरी ओर आर. शामाशास्त्री, रोमिला थापर  तथा अन्य विद्वानों का कहना है कि इस विश्वास के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध है कि अर्थशास्त्र मूलतः एक मौर्यकालीन रचना है और इसका लेखक चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधानमंत्री या मुख परामर्शदाता था।

अर्थशास्त्र में बहुत सारी बातें हैं जो मौर्यकाल पर एकदम खरी उतरती हैं। अर्थशास्त्र में प्रस्तुत मौर्य प्रशासन का विवरण भी मेगस्थनीज की ‘इंडिका’ से पुष्ट होता है इस कारण से अर्थशास्त्र को मौर्यकालीन रचना मानना ही उपयुक्त है।

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विदेशी स्रोत

 विदेशी लेखकों के वृत्तान्तों से भी मौर्यकाल के बारे में बहुत-सी जानकारी मिलती है। इनमें सबसे पहले आते हैं, सिकन्दर के अभियानों में उसके साथ आये हुए इतिहासकार।

इनमें तीन अपने भारत सम्बन्धी विवरण के लिए महत्त्वपूर्ण हैं—नियार्कस, अरिस्टोबुलस तथा ओसिक्रिट्स। इनके ग्रंथ आजकल उपलब्ध नहीं है, लेकिन इन ग्रंथों के अंश परवर्ती यूनानी व रोमन लेखकों ने उद्धृत किये हैं।

इन लेखकों के बाद, मौर्य दरबार में आये यूनानी राजदूतों का भारत सम्बन्धी विवरण महत्त्वपूर्ण है। इनमें सर्वोपरि है—मेगस्थनीज, जिसकी पुस्तक ‘इंडिका’ से अधिक महत्त्वपूर्ण अन्य कोई भी विदेशी वृत्तान्त नहीं है। मेगस्थनीज के बाद आने वाले यूनानी राजदूत थे, डायमेकस तथा डायोनिसियस। इनका विवरण उपलब्ध नहीं है।

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बहुत से परवर्ती यूनानी-रोमन लेखकों ने सिकन्दर के इतिहासकारों, मेगस्थनीज की ‘इंडिका’ एवं अन्य स्रोतों के आधार पर मौर्ययुगीन भारत का विवरण दिया है।

इन लेखकों में महत्त्वपूर्ण हैं

डायोडोरस (प्रथम शताब्दी ई.पू.);

स्ट्रैबो (ई.पू. 64 से 19 ईस्वी);

कर्टियस (41 ई.-54 ई.);

प्लिनी ज्येष्ठ (23 ई.-73 ई.);

प्लूटार्क (46 ई. से 120 ई.);

एरियन (द्वितीय शताब्दी ई.);

जस्टिन (138 ई.-161 ई.);

टालमी (द्वितीय शताब्दी ई.) आदि।

मेगस्थनीज की इंडिका

मेगस्थनीज की पुस्तक ‘इंडिका’ अपने मूल रूप में प्राप्त नहीं है। परवर्ती यूनानी लेखकों (जिनके नाम ऊपर दिये गये हैं) द्वारा दिये गये उद्धरणों से उसके विवरण की जानकारी मिलती है। उसने मौर्यकालीन भारत के बहुत-से पक्षों के बारे में प्रचुर जानकारी दी है और एक समकालीन व्यक्ति का विवरण होने के कारण इसे प्रामाणिक एवं विश्वसनीय माना जाता है।

पुरातात्विक उत्खनन

विगत पचास वर्षों में अनेक मौर्यकालीन स्थलों के उत्खनन हुए हैं। पुरातात्विक पटना के निकट कुम्रहार तथा बुलंदीबाग के उत्खननों से मौर्यकालीन भव्य राजप्रासाद के अवशेष मिले हैं जो मेगस्थनीज के विवरण से मेल खाते हैं। राजगृह, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र, हस्तिनापुर, तक्षशिला आदि स्थानों में हुए उत्खननों से समकालीन भौतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है। उत्तरी चमकीली काली मृद्भाण्ड परम्परा या एन.बी.पी. पात्र परम्परा (Northern Black Polished Ware) को लगभग सम्पूर्ण मौर्य साम्राज्य में प्रयुक्त किया जाता था; इस पात्र-परम्परा के एक दर्जन से अधिक पुरास्थलों से प्राप्त रेडियो- कार्बन तिथियों से हमें यह ज्ञात होता है।

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कलात्मक अवशेष

मौर्य साम्राज्य का वैभव कला में भी अभिव्यक्त हुआ है। उस समय के कलात्मक पुरावशेषों में मौर्यकालीन राजप्रासाद, गुहा-विहार, प्रस्तर मूर्तियाँ तथा अशोक के स्तंभ एवं उनके शीर्ष पर प्रतिष्ठापित पशु-मूर्तियाँ सम्मिलित हैं। इन कलात्मक अवशेषों एवं उनसे मिलने वाली जानकारी के बारे में हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

मुद्राएँ (सिक्के)

मौर्य साम्राज्य मौद्रिक अर्थव्यवस्था पर आधारित था। मौर्यकाल की रजत मुद्राओं की पहचान लगभग समस्त भारत से प्राप्त ‘आहत’ या ‘पंचमार्क’ मुद्राओं (Punchmarked Coins) से की जाती है, जिनमें से कुछ को प्राक्-मौयकालीन माना जाता है, कुछ को मौर्ययुगीन और शेष को मौर्योत्तरयुगीन ।

आहत या पंचमार्क सिक्कों पर न तो किसी शासक का नाम मिलता है, न ही उन पर कोई तिथि ही अंकित है। इनमें से अधिकतर सिक्कों पर केवल वृक्ष, सूर्य, चन्द्रमा, पर्वत, पशु-पक्षियों (ANIMALS AND BIRDS)आदि जैसे प्रतीक चिन्हों को पंच या मुद्रांकित किया गया है।

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इन सिक्कों पर कोई लेख न होने के कारण उनका तिथि निर्धारण सम्बन्धी हमारा अनुमान मुख्यतया उनके प्रतीक चिन्हों की महत्ता पर निर्भर है। ऐसे सिक्के जिन पर ‘मेरु’ और ‘चन्द्र’ तथा ‘मयूरचिह्न’ आहत है, प्रायः मौर्यों द्वारा प्रचलित माने जाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि अधिकतर मौर्यकालीन स्थलों से उत्खनन के दौरान एन. बी. पी. मृद्भाण्ड तथा पंचमार्क सिक्के साथ-साथ मिले हैं।

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