TIPU SULTAN टीपू सुल्तान
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टीपू सुल्तान
मैसूर का स्वतन्त्रता प्रेमी शहंशाह टीपू सुल्तान एक साहसी, योग्य और स्वतन्त्रता प्रेमी शासक था। अपने पिता हैदरअली की तरह वह युद्ध विद्या में कुशल था। पिता की नीति का अनुसरण करते हुए उसने अंग्रेजों से संघर्ष जारी रखा।
उसे फारसी, उर्दू एवं कन्नड़ का अच्छा ज्ञान था। वह धर्मसहिष्णु था। वह योग्य प्रशासक था । आन्तरिक प्रशासन की दृष्टि से टीपू सुल्तान की तुलना पूर्व के किसी भी महान् शासक से की जा सकती है। उसमें सैन्य संगठन की अभूतपूर्व क्षमता थी।
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अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी क्षमता को सुदृढ़ बनाने की दृष्टि से अपने यहाँ फ्रांसीसी सैनिक अधिकारी नियुक्त किये। वह जरूरतमन्दों का पूरा ध्यान रखता था। उसके राज्य में किसानों की रक्षा होती थी तथा श्रमिकों को पुरष्कृत एवं प्रोत्साहित किया जाता था।
वह अपने पिता की मृत्यु के बाद 1782 ई. में मैसूर की राजगद्दी पर बैठा। अंग्रेज उस समय मैसूर पर कब्जा करने के लिए लड़ रहे थे। 1784 ई. में टीपू ने अपनी रणकुशलता और चतुराई से अंग्रेजों को मंगलौर की संधि करने के लिए मजबूर कर दिया।
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मंगलौर की संधि
मंगलौर की संधि के अनुसार:-
(1)दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के जीते हुए प्रदेशों को शर्तों के अनुसार वापस कर दिया।
(2) टीपू सुल्तान ने अंग्रेज बन्दियों (British prisoners) को भी रिहा कर दिया और टीपू के लिए यह संधि उसकी उत्कृष्ट कूटनीतिक सफलता थी।
(3) टीपू सुल्तान ने मराठों की सर्वोच्चता को अस्वीकार कर दिया, अंग्रेजों के साथ पृथक से संधि कर।
टीपू मराठों से कई स्थान जीतने में सफल रहा। लॉर्ड कार्नवालिस ने 1790 ई. में टीपू पर फ्रांसीसियों के साथ साँठ-गांठ का आरोप लगाते हुए उस पर आक्रमण कर दिया तथा निजाम एवं मराठों को भी अपने साथ मिला लिया।
प्रारम्भ में अंग्रेज बिफल रहे परन्तु अन्ततः मार्च, 1792 में टीपू को श्रीरंगपट्टम की सन्धि करने के लिए विवश होना पड़ा। संधि के अनुसार टीपू को अपना आधा राज्य तथा क्षतिपूर्ति की रकम के रूप में 3 करोड़ रुपये देना तय हुआ और रकम का भुगतान न कर पाने की एवज में अपने दो पुत्रों को बंधक के रूप में अंग्रेजों को सौंपना पड़ा।
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उस संधि ने मैसूर को आर्थिक और सामरिक रूप से कमजोर कर दिया। टीपू के लिए अब अंग्रेजों से मैसूर को बचाये रखना असम्भव सा हो गया।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ) से पूर्व लॉर्ड वेलेजली ने टीपू पर फ्रांसीसियों को अपने यहाँ बुलाकर अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यन्त्र का आरोप लगाकर फरवरी, 1799 ई. में आक्रमण कर दिया।
4 मई, 1799 ई. को मैसूर का टाइगर’ टीपू लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। अंग्रेजी सेना ने टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टम, उसके राजमहल और पूरे नगर की खूब लूटपाट की। मैसूर को अंग्रेजों ने अपने प्रभाव में लेकर उस पर सहायक सन्धि थोप दी।
निःसन्देह टीपू एक वीर सेनानायक था, किन्तु वह अपने पिता के समान चतुर सिद्ध नहीं हुआ।
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टीपू की असफलता के महत्त्वपूर्ण कारण थे
टीपू का फ्रांसीसियों का दामन थामना और देशी राज्यों को मिलाकर संयुक्त मोर्चा(United front) बनाने में असफल रहना।
टीपू ने आधुनिक कलैण्डर की शुरुआत की। अपनी मुद्रा चलाई माप तौल की नवीन विधि अपनायी। “नवीनता की अविभ्रांत भावना और प्रत्येक वस्तु के स्वयं ही प्रसूत होने की रक्षा टीपू के चरित्र की मुख्य विशेषता थी।” टीपू मैसूर को शेष विश्व के सम्पर्क में लाने वाला शासक सिद्ध हुआ।
जब तक टीपू जीवित रहा, अंग्रेज अपने को सुरक्षित अनुभव नहीं करते थे। उसकी मुत्यु के पश्चात् ही वे घोषणा कर पाये कि ‘भारत हमारा है।’ निःसन्देह टीपू एक शासक (1782-1799 ई.) के रूप में सफल रहा। तृतीय मैसूर युद्ध (1790-1792 ई.)
टीपू के शासक बनने के समय दक्षिण की तत्कालिक राजनीतिक (immediate political) स्थिति अत्यन्त ही पेचीदा थी।
हैदरअली की मृत्यु के बाद मैसूर के विरोधी राज्य कभी भी प्रबल हो सकते थे निजाम और मराठे दोनों ही मैसूर के कुछ क्षेत्रों पर अपना दावा कर रहे थे।
इस प्रकार अंग्रेजों को हस्तक्षेप करने का अवसर मिला सकता था। ऐसी स्थिति में टीपू के समक्ष दो विकल्प थे। वह या तो अन्य राज्यों से राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित करके अपनी क्षेत्रीय समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करता अथवा विस्तारवादी नीति अपनाकर अपने विरोधियों को ललकारता।
टीपू ने विस्तारवादी नीति को अपनाया, क्योंकि टीपू स्वयं एक कुशल सेनानायक था,
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युद्ध के कारण
(1) टीपू सुल्तान ने विभिन्न आन्तरिक सुधारों द्वारा अपनी स्थिति को मजबूत करने की कोशिश की, इन आन्तरिक सुधारों के कारण अंग्रेजों, निजाम एवं मराठों को भय उत्पन्न हो गया।
(2) फ्रांस एवं टर्की में टीपू द्वारा सन 1787 ई. में अपने दूत भेजकर उनकी मदद प्राप्त करने की कोशिश की गई, इस बजह से अंग्रेजों में शंका उत्पन्न हो गई।
(3) मंगलौर सन्धि टीपू व अंग्रेजों के मध्य यह अस्थायी युद्ध-विराम था, क्योंकि दोनों की महत्त्वाकाँक्षाओं व स्वार्थों में टकराव था । अतः दोनों गुप्त रूप से एक-दूसरे के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर रहे थे।
(4) अंग्रेजों द्वारा टीपू पर यह आरोप लगाया गया कि उसने अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों से गुप्त समझौता किया है।
मैसूर का स्वतन्त्रता प्रेमी शहंशाह टीपू सुल्तान एक साहसी, योग्य और स्वतन्त्रता प्रेमी शासक था। अपने पिता हैदरअली की तरह वह युद्ध TIPU SULTAN
(5) टीपू और कार्नवालिस (अंग्रेजों) के संघर्ष के सम्बन्ध में इतिहासकारों (historians) के द्वारा दो कारण या दो मत बताये गये हैं।
(AA) पहला मत :- कि कम्पनी ने भारत में साम्राज्य विस्तार (empire expansion) की नीति के कारण टीपू से संघर्ष किया।
(B) दूसरा मत :- कि टीपू ने स्वयं ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी थीं जिससे संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया।
(6) टीपू ने ट्रावनकोर के हिन्दू शासक पर आक्रमण कर दिया, जिसको अंग्रेजों की संरक्षकता प्राप्त थी। टीपू की इस कार्यवाही पर अंग्रेजों ने युद्ध की घोषणा कर दी।
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घटनाएँ–
(1) टीपू ने 29 दिसम्बर, 1789 ई. को ट्रावनकोर के राजा पर आक्रमण कर दिया ।
(२) कार्नवालिस ने कुछ प्रदेशों का लालच देकर निम्नानुसार संधि की गई
(A) मराठों से1 जून, 1790 को संधि की गई।
(B) निजाम से 4 जुलाई, 1790 को संधि की गई।।
(3) इस प्रकार चतुरता से कार्नवालिस ने दोनों शक्तियों को साथ लेकर तीसरी भारतीय शक्ति टीपू को कुचलने की चाल चली।
कार्नवालिस 1791 ई. में बंगलौर पर अधिकार करने के बाद टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टम के नजदीक पहुँच गया। टीपू ने भी आगे बढ़कर कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया। परन्तु शीघ्र ही टीपू पराजित होने लगा। अन्त में उसकी राजधानी श्रीरंगपट्टम को भी घेर कर 1792 ई. में अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया।
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श्रीरंगपट्टम की सन्धि
दोनों पक्षों के बीच 23 मार्च, 1792 ई. को ‘श्रीरंगपट्टम’ की सन्धि हो गयी। सन्धि के अनुसार-
(1) टीपू को अपने आधे राज्य से हाथ धोना पड़ा और युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 30 लाख पौण्ड देना तय हुआ। जब तक रुपये नहीं दिये जायेंगे, टीपू के दो पुत्र अंग्रेजों के कब्जे में रहेंगे।
(2) टीपू ने युद्ध के सभी बन्दियों को छोड़ दिया।
(3) इस सन्धि की मुख्य बात यह थी कि त्रावनकोर के हिन्दू राजा जिसके लिए प्रत्यक्ष रूप से लड़ाई हुई थी, को कुछ भी नहीं मिला।
(4) यह युद्ध इसलिए भी महत्त्वपूर्ण रहा कि दक्षिण की दो शक्तियों (मराठा व निजाम) ने दक्षिण की तीसरी शक्ति को नष्ट करने के लिए कम्पनी का सहयोग दिया था।
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चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.)
युद्ध के कारण-1799 ई. में हुए चतुर्थ मैसूर युद्ध के निम्नलिखित कारण थे
(1) श्रीरंगपट्टम की सन्धि टीपू सुल्तान के लिए बहुत ही अपमानजनक थी, अतः वह अंग्रेजों से अपनी पराजय का बदला व खोये हुए प्रदेश वापस लाने के लिए व्याकुल था।
(2) 1793 ई. में टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के शत्रु फ्रांसीसियों से गठबन्धन कर लिया था, जो अंग्रेजों के लिए चित्ता का विषय था ।
(3) टीपू सुल्तान ने लॉर्ड वेलेजली के सहायक सन्धि के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। अतः वेलेजली को टीपू के विरुद्ध युद्ध का बहाना मिल गया ।
(4) तृतीय मैसूर युद्ध की पराजय व अपमान की आग में जल रहे टीपू ने फ्रांसीसियों को अपनी सेना में ऊँचे पद दिये व नेपोलियन को भारत आने का निमन्त्रण दिया तथा टीपू ने मारीशस से फ्रांसीसी सैन्य सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया, जिससे अंग्रेज अत्यधिक सशंकित और क्रुद्ध हो उठे।
युद्ध — टीपू द्वारा प्रस्तावित सन्धि को ठुकरा दिये जाने का बहाना लेकर वेलेजली ने 1799 ई. में मैसूर पर आक्रमण कर दिया। टीपू को श्रीरंगपट्टम के किले में शरण लेने को बाध्य होना पड़ा।
अंग्रेजों ने दुर्ग पर घेरा डाल दिया। दुर्ग की रक्षा करता हुआ टीपू 4 मई, 1799 ई. को दुर्ग के फाटक पर मारा गया। उसके पुत्रों ने अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार 33 वर्षों पूर्व स्थापित मैसूर का मुस्लिम राज्य समाप्त हो गया।
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मैसूर का विभाजन
युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद अंग्रेजों ने मैसूर का विभाजन कर दिया। कोयम्बटूर, कोकनाडा और श्रीरंगपट्टम के आसपास के क्षेत्र कम्पनी के साम्राज्य में सम्मिलित कर लिये गये।
मैसूर राज्य का कुछ भाग निजाम को दे दिया गया। वेलेजली ने थोड़ा भाग कुछ शर्तों के साथ पेशवा को भी देना चाहा, लेकिन उसने लेने से इन्कार कर दिया। बचा हुआ मैसूर का राज्य पहले के हिन्दू राजा के एक वंशज को दे दिया।
इस प्रकार आंग्ल-मैसूर संघर्ष ने मैसूर के राज्य का अन्त करके विभाजित कर दिया। दक्षिणी भारत पर अंग्रेजी प्रभुत्व कायम हो गया। इस संघर्ष से वेलेजली की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। इंग्लैण्ड की सरकार ने उसे ‘मारक्विस’ की उपाधि दी।
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टीपू का मूल्यांकन
टीपू सुल्तान भारतीय इतिहास का एक महान् व्यक्तित्व था। वह अंग्रेजों का कट्टर शत्रु था और अपने पिता के समान ही उनको भारत से निकालने के लिए कटिबद्ध था।
टीपू के नाम से अंग्रेज बड़े आतंकित रहते थे। उसको सदैव भय, शंका तथा घृणा की दृष्टि से देखते थे।
इसी भावना के अन्तर्गत उन्होंने उसके चरित्र का बड़ा ही कलुषित चित्रण किया है। टीपू के विषय में कर्नल विल्सन ने लिखा है, “हैदर शायद ही कभी गलती करता था और टीपू शायद ही कभी रास्ते पर चलता था।
उसके असीम अत्याचारों के कारण उसके राज्य का प्रत्येक हिन्दू उसके शासन से घृणा करता था।” टीपू में दूरदर्शिता का अभाव था।
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उसने अपने पड़ोसी राज्य की सहायता प्राप्त न करके, दूरस्थ देशों जैसे फ्रांस और अन्य मुस्लिम पड़ोसी राज्यों की सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया।
इसी कारण मैसूर में यह लोकोक्ति प्रचलित थी, “हैदर जन्मा था साम्राज्य निर्माण के लिए और टीपू पैदा हुआ था उसके विनाश के लिए।”
कतिपय निष्पक्ष अंग्रेज इतिहासकारों ने टीपू के चरित्र एवं शासन संचालन की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।
टीपू शिक्षित था तथा उसे कई भाषाओं का ज्ञान था। एक कट्टर मुस्लमान होते हुए भी उसने हिन्दू प्रजा के साथ सद्व्यवहार किया तथा उनको धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य नहीं किया।
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उसने अनेक हिन्दू मन्दिरों को दान दिये थे और हिन्दुओं को उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया। उसने सेना, मुद्रा, व्यापार, बाजार इत्यादि सभी शासन के क्षेत्रों में सुधार किये थे।
टीपू का यथार्थ मूल्यांकन करते हुए लेफ्टिनेन्ट मूर ने लिखा है, “जब कोई पर्यटक किसी अपरिचित देश में भ्रमण करते हुए उसको भली-भाँति खेती से भरपूर, परिश्रमी, प्रजा से आबाद, नये बसाये नगरों से शोभायमान, व्यापार की उन्नति में संलग्न, नगरों की संख्या बढ़ाने में प्रयत्नशील और सर्वतोन्मुखी विकास से सुखी पाता तो वह स्वभावतया इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि वहाँ का शासन प्रजा के मनोनुकूल है। यही टीपू के राज्य का चित्र है और यही उसके शासन-तन्त्र के विषय में हमारा निष्कर्ष है। “
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