Chauhan of Hadoti

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Chauhan of Hadoti हाड़ौती के चौहान

 बूँदी के चौहान (हाड़ा)

प्राचीनकाल काल में हाड़ौती(कोटा, बूँदी) भाग पर मीणों का अधिकार था। राजस्थान के दक्षिणी-पूर्वी कोने वाले भाग का नाम हाड़ौती है जिसमें बूंदी और कोटा के भाग शामिल हैं।

कुम्भा कालीन रणपुर लेख में बूँदी का नाम वृन्दावती मिलता है। जब यहां चौहानवंशीय हाड़ा शाखा का अधिकार हुआ तो सम्पूर्ण क्षेत्र को हाड़ौती और बून्दा मीणा के नाम से बूंदी पुकारने लगे। बूंदी के शासक लगभग 11 पीढ़ी तक मेवाड़ के अधीन रहे।

देवीसिंह चौहान

देवीसिंह प्रारंभ में मेवाड़ स्थित बम्बावदे का सामन्त और हाड़ा शाखा का चौहान था। देवीसिंह ने बूंदी के जैता मीणा से इस भाग को 1241 ई. के लगभग छीनकर बूंदी राज्य की स्थापना की। शक्ति का उपासक होते हुए उस गंगेश्वरी देवी का मंदिर और एक बावड़ी अमरथूण में बनवायी। उसने अपने पुत्र समरसिंह को 1243 ई. में अपने जीवन-काल में हाड़ौती का शासक बनाया।

समरसिंह चौहान

समरसिंह ने कोटिया शाखा के भीलों से संघर्ष किया और उनको स्थान-स्थान पर परास्त किया। 1274 ई. में इस तरह हाड़ौती में कोटा एक राजधानी के रूप में बना, परन्तु वह बूंदी राज्य के अंतर्गत था। अपने शौर्य से समरसिंह ने बूंदी और कोटा राज्य को काफी परिवर्द्धित कर दिया। 1252-53 ई. में उसने बूंदी और रणथम्भौर की रक्षा बलबन के विरुद्ध की थी, परन्तु जब अलाउद्दीन की फौजों ने बम्बावदा पर आक्रमण किया तो वह उस अवसर पर वीरगति को प्राप्त हुआ।

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नापूजी चौहान और उसके उत्तराधिकारी

नापूजी समरसिंह की मृत्यु के पश्चात् बूंदी की गद्दी पर बैठा। अलाउद्दीन के साथ 1304 ई. के युद्ध में उसकी मृत्यु हो गयी। नापूजी की मृत्यु के बाद उसका हल्लू हाड़ौती का शासक बना। हल्लू का उत्तराधिकारी वीरसिंह बड़ा निकम्मा शासक सिद्ध हुआ। दुर्भाग्यवश उसके समय में सभी शक्तियां एक के बाद दूसरी बूंदी के विरुद्ध उठ खड़ी हुई जिनका सामना वह सफलतापूर्वक न कर सका।

महाराणा लाखा ने बूंदी राज्य पर आक्रमण कर दिया और उसके फलस्वरूप हाड़ौती की कुछ भूमि, बम्बावदा और माण्डलगढ़ उसके हाथ लगे। 1432 ई. में गुजरात के अहमदशाह ने भी बूंदी-कोटा से दण्ड वसूल किया।

महमूद खलजी ने मांडू से आकर तीन बार (1449, 1453 और 1459 ई.) बूंदी पर आक्रमण किया। 1459 ई. वाले अंतिम आक्रमण में वरीसिंह मारा गया और उसके दो लड़के समरसिंह और अमरसिंह बन्दी बनाकर मांडू ले जाये गये। इन लड़कों का धर्म परिवर्तन किया गया और उनके नाम समरकन्दी और उमरकन्दी रखे गये।

राव सुर्जन चौहान

1569 ई. में राव सुर्जन ने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, सर्वप्रथम उसे एक हजारी जात का पद देकर मनरुढ़ और गढ़ कटंगा की जागीर दी। वहां रहते हुए उसने वहां के आदिम निवासी गोंडों का दमन किया। गोंड नरेश को दिल्ली लाया गया और अकबर के सम्मुख पेश किया गया।

इस सेवा के उपलक्ष में सम्राट ने राव सुर्जन चौहान रावराजा की उपाधि दी तथा 5000 का मनसब दिया। इसके अतिरिक्त बूंदी के निकट 26 परगने और बनारस के निकट 26 परगने देकर उसकी जागीर में वृद्धि की। बनारस में परगने प्राप्त होने पर वह वहीं रहने लगा और बूंदी का राज्य राव सुर्जन चौहान ज्येष्ठ पुत्र दूदा संभालता था।

बनारस में रहते हुए उसके अनुरोध पर चन्द्रशेखर कवि ने ‘सुर्जन चरित्र’ की रचना लगभग 1578 ई. के आसपास की । अन्त में 1585 ई. में काशी में ही उसकी मृत्यु हो गयी।

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राव भोज चौहान (1585-1607 ई.)

रावत रतन चौहान (1607-1621 ई.)

जहांगीर के शासनकाल में उसके पद और सम्मान की वृद्धि हुई। उसे पांच हजारी मनसबदार बनाया गया और ‘सरबुन्दराय’ और ‘रामराज’ की उपाधियों से अलंकृत किया गया। केसरियां निशान और नक्कारे के चिह्नों से उसका सम्मान बढ़ाया गया।

रावत रतन चौहान ने बुरहानपुर में रहते हुए किले की रक्षा की और खुर्रम को, जो अपने पिता से विमुख हो गया था, परास्त किया। जहांगीर के काल में वह मुगल साम्राज्य का स्तम्भ था।

रावत रतन चौहान के संबंध में एक न्यायप्रियता की कहानी भी प्रसिद्ध है कि उसने अपने लड़के गोपीनाथ की हत्या करने वाले ब्राह्मणों को दण्ड नहीं दिया, क्योंकि वह दुराचारी था और दुराचारी से तंग आकर ब्राह्मणों ने उसे मार दिया था।

राव शत्रुशाल हाड़ा चौहान (1621-1658 ई.)

यह राव रतन का पोता और गोपीनाथ का पुत्र था। इस पर शाहजहां की बड़ी कृपा थी। उसे बादशाह ने राव पद से विभूषित कर तीन हजार जात व दो हजार सवार का मनसब तथा बूंदी और खटकड़ परगने की जागीर देकर खानेजहां के साथ दक्षिण में भेजा।

1632 ई. में दौलताबाद के किले को जीतने में तथा 1633 ई. में परेंद्र के घेरे में रावत रतन चौहान ने अपनी वीरता का अच्छा परिचय दिया। बुरहानपुर और खानदेश के अभियानों में इसकी सराहनीय सेवाएं थी

जब शाहजहां के पुत्रों में गृह युद्ध आरम्भ हुआ तो वह शामूगढ़ के युद्ध में शाही फौजों के साथ रहकर औरंगजेब से लड़ा था। जब दारा हाथी छोड़कर गायब हो गया तो शत्रुशाल ने हाथी पर सवार होकर युद्ध की प्रगति को बनाये रखा। इसी रण-स्थल में गोली लगने से 1658 ई. में वह अपने कई संबंधियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ।

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राव भावसिंह हाड़ा चौहान (1658-1681 ई.)

औरंगजेब ने शत्रुशाल हाड़ा के भाई भगवन्तसिंह को मऊ, बारां आदि परगने देकर बूंदी का अलग राजा बना दिया और उसके ज्येष्ठ पुत्र भावसिंह के विरुद्ध, जो बूंदी का शासक बना था, शिवपुर के राजा आत्माराम गौड़ और वरसिंह बुन्देले को भेजा।

भगवन्तसिंह की मृत्यु हो गयी और जो सेना भावसिंह के विरुद्ध भेजी थी उसकी खातौली नामक गांव के पास पराजय हुई। उसने भावसिंह को 1658 ई. में आगरा बुलाया और उसे तीन हजारी जात और दो हजार सवार के मनसब तथा डंका, झण्डा एवं बूंदी की जागीर देकर सम्मानित किया।

इसके और उसकी नियुक्ति बागी शुजा के विरुद्ध की। 1660 ई. के चाकण के घेरे में वह मिर्जा राजा जयसिंह की चढ़ाइयों में शाही फौज में सम्मिलित था।

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राव अनिरुद्ध हाड़ा चौहान (1681 – 1695 ई.)

वह राव भावसिंह हाड़ा के छोटे भाई का पोता था जो 15 वर्ष की आयु में 1681 ई. में बूंदी राज्य का स्वामी (राजा) बना। उसके बूंदी की राजगद्दी पर बैठने पर  औरंगजेब ने खिलअत और हाथी टीके में भेजे थे।

1682 ई. में औरंगजेब के दक्षिण के अभियानों में वह उसके साथ था। इस अवधि में उसने मराठों से शाही बेगमों को घेरे जाने पर बचाया। 1688 ई. के राजाराम जाट के विरुद्ध लड़े गये युद्ध में वह आजम के पुत्र बेदारबख्त के साथ था। काबुल के युद्धों में भी उसकी नियुक्ति मुअज्जम और आमेर के शासक विशनसिंह के साथ हुई थी। वहीं उसकी मृत्यु 1695 ई. में हो गयी।

रावराजा बुद्धसिंह चौहान (1695-1739 ई.)

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यह राव अनिरुद्धसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था जो 10 वर्ष की आयु में 1695 ई. में बूंदी राज्य का स्वामी बना। जब  औरंगजेब की मृत्यु हुई तो उसके पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के लिए युद्ध ठन गया। बुद्धसिंह ने बहादुरशाह का साथ दिया। बुद्धसिंह को महाराव राणा का खिताब एवं कुछ परगने जागीर में दिये । बुद्धासिंह ने नेहतरंग नामक ग्रंथ की रचना की।

मुगल बादशाह फर्रुखशियर के समय बूँदी नरेश बुद्धसिंह के जयपुर नरेश जयसिंह के खिलाफ अभियान पर न जाने के कारण बूँदी राज्य का नाम फर्रुखाबाद रखा और उसे कोटा नरेश को दे दिया। परंतु कुछ समय बाद बुद्धसिंह को बूँदी का राज्य वापस मिल गया।

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राजस्थान में मराठों का सर्वप्रथम प्रवेश बूँदी में हुआ

जब 1734 ई. वहाँ की बुद्धसिंह की कच्छवाही रानी आनन्द कुँवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्कर व राणोजी को आमंत्रित किया। उम्मेदसिंह को एक राजा ने ‘हुन्जा’ नामक इराकी घोड़ा उपहार में दिया। 1818 ई. में बूँदी के शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली और बूँदी की सुरक्षा का भार अंग्रेजी सेना पर आ गया।

देश की स्वाधीनता के बाद बूँदी का राजस्थान संघ में विलय हो गया।

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